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________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 247 से 277 263 पड़ते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो अकेली स्त्री के पास अकेले साधु के बैठकर धर्मोपदेश देने से कभी-नकभी मोह या काम (वेद) की ग्रन्थि में बंध जाने की सम्भावना है। आभ्यन्तरग्रन्थ का शिकार वह साध धीरे-धीरे उस स्त्री का वशवर्ती या गूलाम होकर फिर किसी न किसी बहाने से स्त्रीसंसर्ग करने का प्रयत्न करेगा, निषिद्ध आचरण करने से वह निर्ग्रन्थ धर्म से भ्रष्ट हो जाएगा। फिर वह सच्चे माने में नहीं रह जाएगा / अतः साधु को अपनी निग्रन्थता सुरक्षित रखने के लिए २५७वीं सूत्रगाथा के उत्तरार्द्ध द्वारा शास्त्रकार सावधान करते हैं-'ओए कुलाणि" "ण से वि णिग्गंथे / ' वृत्तिकार इस सम्बन्ध में कुछ स्पष्टीकरण करते हैं कि यदि कोई स्त्री बीमारी के या अन्य किसी गाढ कारण से साध के स्थान पर आने में असमर्थ हो, अतिवद्ध एवं अशक्त हो, और उस साध के दसरे सहायक (साथी) साधु उस समय न हों तो अकेला साधु भी उस महिला के यहाँ जाकर दूसरी स्त्रियों या पुरुषों की उपस्थिति में उस महिला को बैराग्योत्पादक धर्मकथा या मंगलपाठ सुनाए तो कोई आपत्ति नहीं है। ग्यारहवीं प्रेरणा-स्त्रियाँ कूलवालुक जैसे महातपस्वियों को भी तपस्या से भ्रष्ट कर देती हैं। इसलिए चाहे कोई उत्कृष्ट तपस्वी हो मगर उसे यह नहीं सोचना चाहिए कि मैं तो तपस्वी हूँ, तपस्या से मेरा शरीर कृश है, मेरी इन्द्रियाँ शिथिल या शान्त हो गई हैं, अब मुझे क्या खतरा है स्त्रियों से ? तपस्वी साधु इस धोखे में न रहे कि स्त्रीसंसर्ग से कभी भ्रष्ट नहीं हो सकता। स्त्री जलती हुई आग है, उसके पास साधकरूपी घृत रहेगा, तो पिवले विना न रहेगा। तपस्वी यह भलीभांति समझ ले कि वर्षों तक किया हुआ तप रत्रीसंसर्ग से एक क्षण में नष्ट हो सकता है / अतः आत्महितैषी तपस्वी चारित्रभ्रष्ट करने वाली स्त्रियों के साथ न भ्रमण-गमन करे, न साथ रहे, न ही क्रीड़ा या विनोद करे, न बैठे-उठे, न विहार करे / यही प्रेरणा शास्त्रकार ने २५८वीं सूत्रगाथा के उत्तरार्द्ध में दी है-~-'सुतवस्सिए वि भिक्खू णो विहरे सह णमित्थीसु। ____ बारहवीं प्रेरणा-साधु कई बार यह समझ बैठता है कि यह छोटी-सी लड़की है, यह कुमारी कन्या है, अथवा यह मेरी गृहस्थ पक्षीय पुत्र, पुत्रवधू, धायमाता या दासी है। यह मेरे-से भी उम्र में बहुत बड़ी है या साध्वी हैं इनके साथ एकान्त में बैठने, बातचीत करने, या सम्पर्क करने में मेरा शीलभंग कैसे हो जाएगा? अथवा किसी को मेरे पर क्या शंका हो सकती है ? यद्यपि अपनी कन्या, या पुत्रवधू, अथवा धायमाता अथवा मातृसमा चाची, ताई आदि के साथ एकान्त में रहने पर साधु का चित्त सहसा विकृत नहीं हो सकता, फिर भी नीतिकारों ने कहा है - 'मात्रा स्वस्रदुहित्रा बा न विविक्तासनो भवेत् / बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति / " अर्थात्-'माता, वहन या पुत्री के साथ भी एकान्त में नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि इन्द्रियाँ बड़ी बलवती होती हैं, वे विद्वान् पुरुष को (मोह की ओर) खींच लेती हैं। वास्तव में मोहोदय वश कामवासना का उदय कब, किस घड़ी हो जाएगा? यह छद्भस्थ साधक के लिए कहना कठिन है। दूसरी बात है-स्त्री (चाहे वह पुत्री, माता या बहन ही क्यों न हो) के साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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