________________ 214] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध कृतज्ञताप्रकाश को प्रेरणा और उदकनिर्ग्रन्थ का जीवनपरिवर्तन ८६७-भगवं च णं उदाहु-पाउसंतो उदगा! जे खलु समणं वा माहणं वा परिभासति मे त्ति मणति प्रागमेत्ता णाणं पागमेत्ता दंसणं आगमेत्ता चरित्तं पावाणं कम्माणं प्रकरणयाए से खलु परलोगपलिमंथत्ताए चिट्ठइ, जे खलु समणं वा माहणं वा णो परिभासति मे त्ति मण्णति प्रागमेत्ता णाणं प्रागमेत्ता दंसणं आगमेत्ता चरित्तं पावाणं प्रकरणयाए से खलु परलोगविसुद्धीए चिट्ठति / ८६७--(उदक निम्रन्थ के निरुत्तर होने के बाद) भगवान् गौतम स्वामी ने उनसे कहा"आयुष्मन् उदक ! जो व्यक्ति श्रमण अथवा माहन की निन्दा करता है वह साधुओं के प्रति मैत्री रखता हुा भी, ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र को प्राप्त करके भी, हिंसादि पापों तथा तज्जनित पापकर्मों को न करने के लिए उद्यत वह (पण्डितम्मन्य) अपने परलोक के विधात (पलिमंथ या बिलोडन) के लिए उद्यत है। (इसके विपरीत) जो व्यक्ति श्रमण या माहन की निन्दा नहीं करता किन्तु उनके साथ अपनी परम मैत्री मानता है तथा ज्ञान प्राप्त करके, दर्शन प्राप्त कर एवं चारित्र पाकर पापकर्मों को न करने के लिए उद्यत है, वह निश्चय ही अपने परलोक (सुगतिरूप या उसके कारणभूत सुसंयमरूप) की विशुद्धि के लिए उद्यत (उत्थित) है। ८६८–तते णं से उदगे पेढालपुत्ते भगवं गोयम प्रणाढायमाणे जामेव दिसं पाउन्भूते तामेव दिसं संपहारेत्थ गमणाए। ८६८-(श्री गौतम स्वामी का तात्त्विक एवं यथार्थ कथन सुनने के) पश्चात् उदक पेढालपुत्र निग्नन्थ भगवान् गौतम स्वामी को आदर दिये बिना ही जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में जाने के लिए तत्पर हो गये। ८६९-भगवं च णं उदाहु-प्राउसंतो उदगा! जे खलु तहाभूतस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि प्रारियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा निसम्म अप्पणो चेव सुहुमाए पडिलेहाए प्रणुत्तरं जोयक्खेमपयं / लंभिते समाणे सो वि ताव तं प्राढाति परिजाणति वंदति नमसति सक्कारेइ सम्माणेइ कल्लाणं मंगलं देवयं चेतियं पज्जुवासति / ८६६–(उदकनिर्ग्रन्थ की यह चेष्टा जान कर) भगवान् गौतम स्वामी ने (धर्मस्नेहपूर्वक) कहा-"आयुष्मन् उदक ! (श्रेष्ठ शिष्ट पुरुषों का परम्परागत प्राचार यह रहा कि) जो व्यक्ति (किसी भी) तथाभूत (सुचारित्र) श्रमण या माहन से एक भी आर्य (हेय तत्त्वों से दूर रखने वाला या संसारसागर से पार उतारने वाला) धार्मिक (एवं परिणाम में हितकर) सुवचन सुनकर उसे हृदयंगम करता है और अपनी सूक्ष्म (विश्लेषणकारिणी) प्रज्ञा से उसका भलीभांति निरीक्षण-परीक्षण (समीक्षण) करके (यह निश्चित कर लेता है) कि 'मुझे इस परमहितैषी पुरुष ने सर्वोत्तम (अनुत्तर) योग (अप्राप्त की प्राप्ति), क्षेम (प्राप्त का रक्षण) रूप पद को उपलब्ध कराया है,' (तब कृतज्ञता के नाते) वह (उपकृत व्यक्ति) भी उस (उपकारी तथा योगक्षेमपद के उपदेशक) का आदर करता है, उसे अपना उपकारी मानता है, उसे वन्दन-नमस्कार करता है, उसका सत्कार--सम्मान करता है, यहाँ तक कि वह उसे कल्याणरूप, मंगलरूप, देव रूप और चैत्यरूप मान कर उसकी पर्युपासना करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org