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________________ नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र 870-873] [215 ___८७०-तते णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वदासी-एतेसि णं भंते ! पदाणं पुग्विं अण्णाणयाए प्रसवणयाए अबोहीए अणभिगमेणं अविट्ठाणं असुयाणं प्रमुयाणं अविण्णायाणं अणिगूढाणं अव्वोगडाणं अव्वोच्छिण्णाणं अणिसट्टाणं अणिजढाणं अवधारियाणं एयमट्ठ णो सद्दहितं णो पत्तियं णो रोइयं, एतेसि णं भंते ! पदाणं एण्णिं जाणयाए सवणयाए बोहीए जाव उवधारियाणं एयम४ सदहामि पत्तियामि रोएमि एवमेयं जहा णं तुम्भे वदह / ८७०–तत्पश्चात् (गौतम स्वामी के अमृतोपम उद्गार सुनने के पश्चात्) उदक निम्रन्थ ने भगवान् गौतम से कहा-"भगवन् ! मैंने ये (आप द्वारा निरूपित परमकल्याणकर योगक्षेमरूप) पद पहले कभी नहीं जाने थे, न ही सुने थे, न ही इन्हें समझे थे। मैने इन्हें हृदयंगम नहीं किये, न इन्हें कभी देखे (स्वयंसाक्षात् उपलब्ध, थे, न दूसरे से) सुने थे, इन पदों को मैंने स्मरण नहीं किया था, ये पद मेरे लिए अभी तक अज्ञात थे, इनकी व्याख्या मैंने (गुरुमुख से) नहीं सुनी थी, ये पद मेरे लिए गढ़ थे, ये पद निःसंशय रूप से मेरे द्वारा ज्ञात या निर्धारित न थे, न ही गरु द्वारा (विस्तत ग्रन्थ से संक्षेप में) उदधत थे, न ही इन पदों के अर्थ की धारणा किसी से की थी। इन पदों में निहित अर्थ पर मैंने श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, और रुचि नहीं की। भंते ! इन पदों को मैंने अब (आप से) जाना है, अभी आपसे सुना है, अभी समझा है, यहाँ तक कि अभी मैंने इन पदों में निहित अर्थ की धारणा की है या तथ्य निर्धारित किया है। अतएव अब मैं (आपके द्वारा कथित) इन (पदों में निहित) अर्थों में श्रद्धा करता हूं, प्रतीति करता हूँ, रुचि करता हूँ। यह बात वैसी ही है, जैसी आप कहते हैं / " 871 -तते णं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वदासी-सद्दहाहि णं अज्जो!, पत्तियाहि गं प्रज्जो !, रोएहि णं प्रज्जो !, एवमेयं जहा णं अम्हे वदामो। ८७१-तदनन्तर (उदक निग्रन्थ के शुद्धहृदय से निःसृत उद्गार तथा हृदयपरिवर्तन से प्रभावित) श्री भगवान् गौतम उदक पेढालपुत्र से इस प्रकार कहने लगे-आर्य उदक! जैसा हम कहते हैं. (वह मनःकल्पित नहीं, अपित सर्वज्ञवचन है अत: उस पर पर्ण श्रद्धा रखो। आर्य ! उस पर प्रतीति रखो, आर्य ! वैसी ही रुचि करो।) आर्य! मैंने जैसा तुम्हें कहा है, वह (प्राप्तवचन होने से) वैसा ही (सत्य–तथ्य रूप) है। ८७२-तते णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वदासी-इच्छामि णं भंते ! तुम्भं अंतिए चाउज्जामातो धम्मातो पंचमहव्वतियं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ८७२–तत्पश्चात् (अपने हृदय परिवर्तन को क्रियान्वित करने की दृष्टि से) उदकनिम्रन्थ ने भगवान् गौतमस्वामी से कहा-"भंते! अब तो यही इच्छा होती है कि मैं आपके समक्ष चातुर्याम धर्म का त्याग करके प्रतिक्रमणसहित पंच महाव्रतरूप धर्म अापके समक्ष स्वीकार करके (आपका अभिन्न-पाचार-विचार में समानधर्मा होकर) विचरण करू।" ___८७३–तए णं भगवं गोतमे उदयं पेढालपुत्तं गहाय जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तए णं से उदए पेढालपुत्ते समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेति, तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेता वंदति नमसति, बंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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