________________ 26 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध ६५५-इह खलु पंच महाभूता जेहि नो कज्जति किरिया ति वा अकिरिया ति वा सुकडे ति वा दुक्कडे ति वा कल्लाणे ति वा पावए ति वा साहू ति वा असाहू ति वा सिद्धी ति वा प्रसिद्धी ति वा णिरए ति वा अणिरए ति वा अवि यंतसो तणमातमवि / 655- इस जगत् में पंचमहाभूत ही सब कुछ हैं। जिन से हमारी क्रिया या प्रक्रिया, सुकृत अथवा दुष्कृत कल्याण या पाप, अच्छा या बुरा, सिद्धि या असिद्धि, नरकगति या नरक के अतिरिक्त अन्यगति ; अधिक कहाँ तक कहें, तिनके के हिलने जैसी क्रिया भी (इन्ही पंचमहाभूतों से) होती है / ६५६-तं च पदुद्देसेणं पुढोभूतसमवातं जाणेज्जा, तं जहा----पुढवी एगे महन्भूते, भाऊ दोच्चे महन्भूते, तेऊ तच्चे महन्भूने, वाऊ च उत्थे महन्भूते, अागासे पंचमें महाभूते / इच्चेते पंच महाभूता प्रणिम्मिता अणिम्मेया अकडा णो कित्तिमा णो कडगा प्रणादिया अणिधणा अवंझा अपुरोहिता सप्ता सासता। ६५६--उस भूत-समवाय (समूह) को पृथक-पृथक नाम से जानना चाहिए। जैसे किपृथ्वी एक महाभूत है, जल दूसरा महाभूत है, तेज (अग्नि) तीसरा महाभूत है, वायु चौथा महाभूत है और आकाश पांचवाँ महाभूत है / ये पांच महाभूत किसी कर्ता के द्वारा निर्मित (बनाये हुए) नहीं हैं, न ही ये किसी कर्ता द्वारा बनवाए हुए (निर्मापित) हैं, ये किये हुए (कृत) नहीं है, न ही ये कृत्रिम (बनावटी) हैं, और न ये अपनी उत्पत्ति के लिए किसी की अपेक्षा रखते हैं / ये पांचों महाभूत आदि एवं अन्त रहित हैं तथा अवन्द्य--अवश्य कार्य करने वाले हैं। इन्हें कार्य में प्रवृत्त करने वाला कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, ये स्वतंत्र एवं शाश्वत (नित्य) हैं। ६५७----प्रायछट्ठा पुण एगे, एवमाहु--सतो णस्थि विणासो, असतो णस्थि संभवो / ' एताव ताव जीवकाए, एताव ताव अस्थिकाए, एताव ताव सव्वलोए, एतं मुहं लोगस्स कारणयाए, अवि यंतसो तणमातमवि। से किणं किणावेमाणे, हणं घातमाणे, पयं पथावेमाणे, अवि अंतसो पुरिसमवि विक्किणित्ता घायइत्ता, एत्थ वि जाणाहि-णस्थि एत्थ दोसो। ६५७-कोई (सांख्यवादी) पंचमहाभूत और छठे आत्मा को मानते हैं / वे इस प्रकार कहते हैं कि सत् का विनाश नही होता और असत् की उत्पत्ति नहीं होती। (वे पंचमहाभूतवादी कहते हैं-) "इतना ही (यही) जीव काय है, इतना ही (पंचभूतों का अस्तित्वमात्र ही) अस्तिकाय है, इतना ही (पंचमहाभूतरूप ही) समग्र जीवलोक है। ये पंचमहाभूत ही लोक के प्रमुख कारण (समस्तकार्यों में व्याप्त) हैं, यहां तक कि तृण का कम्पन भी इन पंचमहाभूतों के कारण होता है।" (इस दृष्टि से आत्मा असत् या अकिञ्चित्कर होने से) 'स्वयं खरीदता हुआ, दूसरे से खरीद कराता हुअा, एवं प्राणियों का स्वयं घात करता हुआ तथा दूसरे से घात कराता हुअा, स्वयं पकाता और दूसरों से पकवाता हुआ (उपलक्षण से इन सब असदनुष्ठानों का अनुमोदन करता हुआ), यहां 1 तुलना—'नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः / ' -भगवद्गीता अ. 2, श्लो. 16. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org