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________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 658 ] - [ 27 तक कि किसी पुरुष को (दास आदि के रूप में) खरीद कर घात करने वाला पुरुष भी दोष का भागी नहीं होता क्योंकि इन सब (सावद्य) कार्यों में कोई दोष नहीं है, यह समझ लो।" 658 ते णो एतं विपडिवेदेति, तं जहा—किरिया ति वा जाव अणिरए ति वा / एवामेव ते विरूवरूवेहि कम्मसमारंभेहि विरूवरूवाई कामभोगाई समारंभंति भोयणाए / एवामेव ते अणारिया विप्पडिवण्णा तं सद्दहमाणा पत्तियमाणा जाव इति ते णो हवाए णो पाराए, अंतरा कामभोगेसु विसण्णा / दोच्चे पुरिसज्जाए पंचमहन्भूतिए ति माहिते / ६५८–वे (पंचमहाभूतवादी) क्रिया से लेकर नरक से भिन्न गति तक के (पूर्वोक्त) पदार्थों को नहीं मानते / इस प्रकार वे नाना प्रकार के सावद्य कार्यों के द्वारा कामभोगों की प्राप्ति के लिए सदा प्रारम्भ-समारम्भ में प्रवृत्त रहते हैं / अतः वे अनार्य (आर्यधर्म से दूर), तथा विपरीत विचार वाले हैं। इन पंचमहाभूतवादियों के धर्म (दर्शन) में श्रद्धा रखने वाले एवं इनके धर्म को सत्य मानने वाले राजा आदि (पूर्वोक्त प्रकार से) इनकी पूजा-प्रशंसा तथा आदर सत्कार करते हैं, विषयभोगसामग्री इन्हें भेंट करते हैं। इस प्रकार सावद्य अनुष्ठान में भी अधर्म न मानने वाले वे पंचमहाभूतवादी स्त्री सम्बन्धी कामभोगों में मूच्छित होकर न तो इहलोक के रहते हैं और न ही परलोक के। उभयभ्रष्ट होकर पूर्ववत् बीच में ही कामभोगों में फंस कर कष्ट पाते हैं / यह दूसरा पुरुष पाञ्चमहाभूतिक कहा गया है। विवेचन--द्वितीय पाञ्चमहाभूतिक पुरुष : स्वरूप विश्लेषण-सूत्रसंख्या 654 से 658 तक पांच सूत्रों द्वारा शास्त्रकार ने पाञ्चमहाभूतिक वाद का स्वरूप, उसको स्वीकार करने वाले तथा उसकी मोक्ष प्राप्ति में असफलता का प्रतिपादन विविध पहलुत्रों से किया है / वे इस प्रकार हैं (1) सर्वप्रथम पूर्वसूत्रोक्त वर्णन भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया गया है। (2) पंच महाभूतों का महात्म्य-सारा संसार, संसार की सभी क्रियाएं, जगत् की उत्पत्ति स्थिति और नाश आदि पंचमहाभूतों के ही कारण हैं। (3) पंचमहाभूतों का स्वरूप-ये अनादि, अनन्त, अकृत, अनिमित, अकृत्रिम, अप्रेरित, स्वतंत्र, काल, ईश्वर, आत्मा आदि से निरपेक्ष, स्वयं समस्तक्रियाएं करने वाले हैं। (4) इसलिए क्रिया-प्रक्रिया, पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक, आत्मा-परमात्मा आदि वस्तुओं का कोई अस्तित्व नहीं है। (5) सांख्यदर्शन के मतानुसार पंचमहाभूतों के अतिरिक्त छठा आत्मा भी है। पर वह निष्क्रिय है, अकर्ता है। इसलिए अच्छा या बुरा फल उसे नहीं मिलता / अतः दोनों ही प्रकार के पांचभूतवादियों के मतानुसार हिसा, असत्य आदि में कोई दोष नहीं है। (6) ऐसा मानकर वे निःसंकोच स्वयं कामभोगों या सावद्यकार्यों में प्रवृत्त होते रहते हैं। फिर उन्होंने जिन राजा आदि धर्म श्रद्धालुयों को पक्के भक्त बनाए हैं, वे भी विविध प्रकार से उनकी पूजा-प्रतिष्ठा करके उनके लिए विषयभोगसामग्री जुटाते हैं / (7) फलतः वे इस लोक से भी भ्रष्ट हो जाते हैं और परलोक से भी। वे संसार को पार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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