________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सत्र 654 / [ 25 (6) 'मेरा ही- धर्म सत्य है' ऐसी हठाग्रहपूर्वक प्ररूपणा / (7) राजा आदि अनुयायियों द्वारा तज्जीव-तच्छरीरवादियों के प्रति श्रद्धा-प्रतीति-रुचिपूर्वक प्रकट की जाने वाली कृतज्ञता एवं पूजा-भक्तिभावना और उसकी आसक्ति में फंस जाने वाले तज्जीव-तच्छरीरवादी / (8) शरीरात्मवादियों द्वारा पूर्वगृहीत महाव्रतों एवं त्याग-नियमादि की प्रतिज्ञा के भंग का वर्णन। (8) इस प्रकार पूर्वोक्त प्रथमपुरुषवत् तज्जीव-तच्छरीरवादी उभय भ्रष्ट होकर कामभोग के कीचड़ में फंस कर रह जाते हैं / वे गृहवासादि पूर्वसंयोगों की भी छोड़ चुके होते हैं, लेकिन आर्य-धर्म नहीं प्राप्त कर पाते / तदनुसार वे संसारपाश से स्व-पर को मुक्त नहीं कर पाते। निष्कर्ष-पूर्व दिशा से पुष्करिणी के तट पर आये हुए और प्रधान श्वेतकमल को पाने के लिए लालायित, किन्तु पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ एवं पानी में फंसकर रह जाने वाले प्रथम पुरुष की तरह तज्जीव-तच्छरीरवादी भी संसार के तट पर पाते हैं, मोक्षमार्ग को पाने के लिए एवं पातुर कृतप्रतिज्ञ साधुवेषी तज्जीव-तच्छरीरवाद की मान्यता एवं तदनुसार सांसारिक विषयभोगरूपी कीचड़ में फंस जाते हैं, वे उस समय गृहस्थाश्रम और साधुजीवन दोनों से भ्रष्ट हो जाने से वे स्वपर का उद्धार करने में असमर्थ हो जाते हैं। द्वितीय पुरुष : पाञ्चमहाभूतिक : स्वरूप विश्लेषण ६५४-प्रहावरे दोच्चे पुरिसज्जाते पंचमहाभूतिए ति पाहिज्जति / इह खलु पाईणं वा 4 संतेगतीया मणुस्सा भवंति अणपुवेणं लोयं उववण्णा, तं जहा-प्रारिया वेगे एवं जाव दुरूवा वेगे / तेसि च णं महं एगे राया भवती महया० एवं चेव णिरवसेसं जाद सेणावतिपुत्ता / तेसि च णं एगतीए सड्डी भवति, कामं तं समणा य माहणा य पहारिसु गमणाए। तत्थऽण्णयरेणं धम्मेणं पन्नत्तारो वयमिमेणं धम्मेणं पन्नवइस्सामो, से एवमायाणह भयंतारो ! जहा मे एस धम्मे सुअक्खाए सुषण्णत्ते भवति / ६५४–पूर्वोक्त प्रथम पुरुष से भिन्न दूसरा पुरुष पञ्चमहाभूतिक कहलाता है। इस मनुष्यलोक की पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओं में मनुष्य रहते हैं / वे क्रमश: नाना रूपों में मनुष्यलोक में उत्पन्न होते हैं, जैसे कि---कोई आर्य होते हैं, कोई अनार्य / इसी तरह पूर्वसूत्रोक्त वर्णन के अनुसार कोई कुरूप आदि होते हैं / उन मनुष्यों में से कोई एक महान् पुरुष राजा होता है / वह राजा पूर्वसूत्रोक्त विशेषणों (महान् हिमवान् आदि) से युक्त होता है और उसकी राजपरिषद् भी पूर्वसूत्रोक्त सेनापति पुत्र आदि से युक्त होती है। उन सभासदों में से कोई पुरुष धर्मश्रद्धालु होता है। वे श्रमण और माहन उसके पास जाने का निश्चय करते हैं। वे किसी एक धर्म की शिक्षा देने वाले अन्यतीथिक श्रमण और माहन (ब्राह्मण) राजा आदि से कहते हैं-"हम आपको उत्तम धर्म की शिक्षा देंगे।" (इसके पश्चात् वे कहते हैं -) 'हे भयत्रातामो! प्रजा के भय का अन्त करने वालो ! मैं जो भी उत्तम धर्म का उपदेश आपको दे रहा हूँ, वही पूर्वपुरुषों द्वारा सम्यक्प्रकार से कथित और सुप्रज्ञप्त (सत्य) है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org