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________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 143 155 जे दूवणतेहि हो गयाचूर्णिकार के अनुसार-दुष्प्रवृत्तियों-आरम्भपरिग्रहादि में प्रणत-झुके हुए हैं, वे दूपनत-- शाक्यादि धर्मानुयायी हैं, उनके धर्मों में जो नत-झुके हुए नहीं हैं, अर्थात् उनके आचार के अनुसार प्रवृत्ति नहीं करते / वृत्तिकार के अनुसार-(१) दुष्ट धर्म के प्रति जो उपनत हैं-कुमार्गानुष्ठानकर्ता हैं। जो उनके चक्कर में नहीं है। अथवा 'द्रयणतेहि पाठान्तर मानने से अर्थ होता है-मन को दूषित करने वाले जो शब्दादि विषय हैं, उनके समक्ष नत-दास नहीं है / 12 समामिाहियं--(अपनी आत्मा में) निहित स्थित राग-द्वेष परित्यागरूप समाधि या धर्मध्यानरूप समाधि को। आयहियं खु दुहेण लम्भइ =अर्थात् आत्महित की प्राप्ति बड़ी कठिनता से होती है। क्यों ? इसका उत्तर वृत्तिकार देते हैं कि 'संसार में परिभ्रमण करने वाले प्राणी को धर्माचरण किये बिना आत्म-कल्याण कैसे प्राप्त होगा? गहराई से विचार करने पर इस कथन की यथार्थता समझ में आ जावेगी, क्योंकि सभी प्राणियों में जंगम (नस) प्राणी श्रेष्ठ हैं, उनमें भी पंचेन्द्रिय जीव उत्कृष्ट हैं, और पंचेन्द्रिय प्राणियों से भी मनुष्यभव विशिष्ट है। मनुष्यभव में भी आर्यदेश, फिर उत्तमकुल और उसमें भी उत्तम जाति, उसमें भी रूप, समृद्धि, शक्ति, दीर्घायु, विज्ञान (आत्मज्ञान), सम्यक्त्व, फिर शील यों उत्तरोत्तर विशिष्ट पदार्थ की प्राप्ति दुर्लभ होने से आत्महित का साधन दुर्लभतम है। इतनी घाटियाँ पार होने के बाद आत्महित की प्राप्ति सम्भव है, इससे आत्महित की दुष्प्राप्यता सहज ही जानी जा सकती है। द्वितीय उद्देशक सामाप्त OLD तइओ उद्देसओ तृतीय उद्देशक संयम से अज्ञानोपचित कर्म-नाश और मोक्ष 143 संवुडकम्मस्स भिक्खुणो, जं दुक्खं पुठं अबोहिए। __ तं संजमओऽवचिज्जइ, मरणं हेच्च वति पंडिता // 1 // 143. अष्टविध कर्मों का आगमन जिसने रोक दिया है, ऐसे भिक्षु को अज्ञानवश जो दुःख (या दुःखजनक कम) स्पृष्ट हो चुका है; वह (कर्म) (सत्रह प्रकार के) संयम (के आचरण) से क्षीण हो जाता है। (और) वे पण्डित मृत्यु को छोड़ (समाप्त) कर (मोक्ष को) प्राप्त कर लेते हैं। विवेचन-मुक्तिप्राप्ति के लिए नवीन कर्मों के आस्रव का निरोध अर्थात् संवर पूर्वबद्ध कर्मों का 32 (क) जे दूवणतेहि णो णता--जे.""दुष्टं प्रणताः दूपनताः शाक्यादयः, ""आरम्भ-परिग्रहेषु ये न नता:। -सू० कृ० चूणि० (मू० पा० टि०) पृ० 24 (ख) दुष्टं धर्म प्रति उपनता दुरूपनताः, कुमार्गानुष्ठायिनस्तीथिकाः, यदि वा दूमणत्ति दुष्ट मनःकारिणः"विषया तेषु ये महासत्त्वा न नताः तदाचारानुष्ठायिनो न भवन्ति / " -सूत्रकृ० शी० वृत्ति पनांक 62 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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