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________________ गाथा 447 से 460 सचित्त वनस्पति को हटाकर अचित्त जल से भी कदापि आचमन (मुख या शरीर शुद्धि या मलद्वारशुद्धि) न करे। 456. गृहस्थ के बर्तन (परपात्र) में कदापि आहार-पानी का सेवन न करे; साधु अचेल (वस्त्ररहित या जीर्ण वस्त्र वाला) होने पर भी परवस्त्र (गृहस्थ का वस्त्र धारण न करे। विद्वान् मुनि ऐसा करना कर्मबन्धजनक जानकर उसका परित्याग करे। 457. साधु खाट पर और पलंग पर न बैठे, न ही सोए / गृहस्थ के घर के भीतर या दो घरों के बीच (छोटी संकरी गली) में न बैठ, गृहस्थ के घर के समाचार, कुशल-क्षेम आदि न पूछे अथवा अपने अंगों को (शोभा की दृष्टि से) न पोछे तथा अपनी पूर्वकामक्रीड़ा का स्मरण न करे / विद्वान् साधु इन्हें श्रमणधर्मभंगकारक समझकर इनका परित्याग करे। 458. यश, कीति, श्लोक प्रशंसा) तथा जो वन्दना और पूजा-प्रतिष्ठा है, तथा समग्रलोक में जो काम-भोग हैं, इन्हें विद्वान् मुनि सयम के अपकारी समझकर इनका त्याग करे। 456. इस जगत में जिस (अन्न, जल आदि पदार्थ) से साधु के संयम का निर्वाह हो सके वैसा ही आहार-पानी ग्रहण करे। वह आहार-पानी असंयमी को न देना अनर्थकर (असंयमवर्द्धक) जानकर तत्त्वज्ञ मुनि नहीं देवे / (संयम दूषित या नष्ट हो जाए) उस प्रकार का अन्न जल अन्य साधकों को न दे। उसे संयम-विघातक जानकर साधु उसका त्याग करे। 460. अनन्तज्ञानी, अनन्तदर्शी, निम्रन्थ महामुनि श्रमण भगवान् महावीर ने इसप्रकार चारित्रधर्म और श्रुतधर्म का उपदेश दिया हैं। विवेचन--उत्तरगुणगत-दोषत्याग का उपदेश-सूत्रगाथा 447 से लेकर 460 तक श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्रदत्त श्रमणों के चारित्र धर्म को दूषित करने वाले उत्तरगुणगत-दोषों के त्याग का उपदेश है। इन सभी गाथाओं के अन्तिम चरण में तं विज्जं परिजाणिया' कहकर शास्त्रकार ने उनके त्याग का उपदेश दिया है / उसका आशय व्यक्त करते हुए वृत्तिकार कहते हैं- उस अनाचरणीय सयमदूषक कृत्य को ज्ञपरिज्ञा से कर्मबन्ध का एवं संसार-परिभ्रमण का कारण जानकर विद्वान साधक प्रत्याख्यान परिज्ञा से उसका त्याग करे। इनमें से साधु के लिए अधिकांश अनाचारों (अनाची!) का वर्णन है जिनका दशवकालिक एवं आचाराँग आदि शास्त्रों में यत्र तत्र उल्लेख हुआ है." 7 (क) सूत्रकतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 176 से 182 तक का सारांश (ख) तुलना--(अ) दशवकालिक अ०३ गाथा 6, 2, 3, 4, 5 (आ) दशवै० अ०६, गा० 46 से 67 तक (ग) णो धोएज्जा, णो रएज्जा, णो धोतरताई वत्थाई धारेज्जा...। -आचारांग प्र० श्रु० विवेचन अ०८, उ०४ सू० 214 पृ० 261 (घ) णो दतपक्खालणेण दंते पक्खाले ज्जा, णो अंजणं णो धमण....। -सू० कृ० द्वितीय श्रुत० सूत्र 681 (ग) तुलना करिए.--'सेव्यथिद-अठ्ठपदं ""सेय्यथिदं आदि पल्लंक""मालागंधविलेपन... चित्रुपाहनं अञ्जनं. वाल-विनि....."मंडनविभूसनहानानुयोगा पटि विरतो......। -सुत्तपिटक दीघनिकाय ब्रह्मजालसुत्त पृ० 86 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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