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________________ सूत्रकृतांग-नवम अध्ययन-धर्म 447. माया (परिकुञ्चन-बक्रताकारिणी किया), और लोभ (भजन) तथा क्रोध और मान को लाट कर डालो (धुन दो); क्योंकि ये सब (वषाय) लोक में कर्मबन्ध के कारण है, अतः विद्वान् साधक ज्ञपरिज्ञा से जानकर, प्रत्याख्यानपरिज्ञा से इनका त्याग करे। 448. (विभूषा की दृष्टि से) हाथ, पैर और वस्त्र आदि धोना, तथा उन्हें रंगना, वस्तिकर्म करना (एनिमा वगैरह लेना); विरेचन (जुलाब) लेना, दवा लेकर वमन (के) करना, आँखों में अंजन (काजल आदि) लगाना; ये (और ऐसे अन्य) शरीरसज्जादि संयमविघातक (पलिमंथकारी) हैं, इनके (स्वरूप और दुष्परिणाम) को जानकर विद्वान् साधु इनका त्याग करे। 446. शरीर में सुगन्धित पदार्थ लगाना, पुष्पमाला धारण करना, स्नान करना, दांतों को धोनासाफ करना, परिग्रह (सचित्त परिग्रह--द्विपद, चतुष्पद या धान्य आदि, अचित्त परिग्रह--सोने-चांदी आदि के सिक्के, नोट, सोना-चांदी, रत्न, मोती आदि या इनके आभूषणादि पदार्थ रखना। स्त्रीकर्म (देव, मनुष्य या तिर्यञ्च स्त्री के साथ मैथुन-सेवन) करना, इन अनाचारों को विद्वान् मुनि (कर्मबन्ध एवं संसार का कारण) जानकर परित्याग करे / 450. औद्देशिक (साधु के उद्देश्य से गृहस्थ द्वारा तैयार किया गया दोषयुक्त क्रीतकृत-खरीदकर लाया या लाकर बनाया हुआ), पामित्य (दूसरे से उधार लिया हुआ), आहृत (साधु के स्थान पर सामने लाया हुआ), पूर्तिकर्म (आधाकर्मो आहारमिश्रित दूषित) और अनैपणीय (एषणा दोषों से दूषित) आहार को अशुद्ध और संसार का कारण जानकर विद्वान् मुनि त्याग करे। 451. घृतादि या शक्तिवर्द्धक रसायन आदि का सेवन करना आँखों में (शोभा के लिए) अंजन लगाना, रसों या शब्दादि विषयों में गृद्ध (आसक्त होना, प्राणिउपधातक कर्म करना, (या दूसरों के कार्य बिगाड़ना), हाथ-पैर आदि धोना, शरीर में कल्क (उबटन पीठी या क्रीम स्नो जैसा सुगन्धित पदार्थ लगाना; इन सबको विद्वान् साधु संसार-भ्रमण एवं कर्मबन्धन के कारण जानकर इनका परित्याग करे। 452. असंयमियों के साथ सांसारिक वार्तालाप (या सांसारिक वातों का प्रचार-प्रसार) करना, घर को सुशोभित करने आदि असंयम कार्यों की प्रशंसा करना, ज्योतिष सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर देना और शय्यातर (सागारिक) का पिण्ड (आहार) ग्रहण करना विद्वानू साधु इन सब को संसार का कारण जानकर त्याग दे। 453. साधु अष्टापद (जुआ, शतरंज आदि खेलना) न सीखे, धर्म की मर्यादा (लक्ष्यवेध-) से विरुद्ध वचन न बोले तथा हस्तकर्म अथवा कलह करके हाथापाई न करे और न ही शुष्क निरर्थक विवाद (वाक्कलह) करे इन सबको संसार भ्रमण का कारण जानकर इनका त्याग करे।। 454. जूता पहनना, छाता लगाना, जुआ खेलना, मोरपिच्छ, ताड़ आदि के पंखे से हवा करना, परक्रिया (गृहस्थ आदि से पैर दबवाना) अन्योन्यक्ति या (साधुओं का परस्पर में ही काम करना); इन सबको विद्वान् साधक कर्मबन्धजनक जानकर इनका परित्याग करे। 455. मुनि हरो वनस्पति (हरियाली) वाले स्थान में मल-मूत्र-विसर्जन न करे, तथा बीज आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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