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________________ 88] [ सूत्रकृतांगसूत्र--द्वितीय श्र तस्कन्ध एस ठाणे अणारिए अकेवले जाव असव्वदुक्खप्पहीणमम्गे एगंतमिच्छे असाहू / पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिते। ७१३-इसके पश्चात् प्रथम, स्थान जो अधर्मपक्ष है, उसका विश्लेषणपूर्वक विचार इस प्रकार किया जाता है-इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कई मनुष्य ऐसे होते हैं, जो (कौटुम्बिक जीवन बितानेवाले) गृहस्थ होते हैं, जिनकी बड़ी-बड़ी इच्छाएं (महत्त्वाकांक्षाएं) होती हैं, जो महारम्भी एवं महापरिग्रही होते हैं। वे अधार्मिक (अधर्माचरण करने वाले), अधर्म का अनुसरण करने या अधर्म की अनुज्ञा देने वाले, अमिष्ठ (क्रूरतायुक्त अधर्म प्रधान, अथवा जिन्हें अधर्म ही इष्ट है), अधर्म की ही चर्चा करनेवाले, अधर्मप्रायः जीवन जीनेवाले, अधर्म को ही देखनेवाले, अधर्म-कार्यों में ही अनुरक्त, अधर्ममय शील (स्वभाव) और आचार (आचरण) वाले एवं अधर्म (पाप) युक्त धंधों से अपनी जीविका (वत्ति) उपार्जन करते हए जीवनयापन करते हैं / (उदाहरणार्थ-वे सदैव इस प्रकार की प्राज्ञा देते रहते हैं-) इन (प्राणियों) को (डंडे आदि से) मारो, इनके अंग काट डालो, इनके टुकड़े-टुकड़े कर दो (या इन्हें शूल आदि में बींध दो)। वे प्राणियों की चमड़ी उधेड़ देते हैं, प्राणियों के खून से उनके हाथ रंगे रहते हैं, वे अत्यन्त चण्ड (क्रोधी), रौद्र (भयंकर) और क्षुद्र (नीच) होते हैं, वे पाप कृत्य करने में अत्यन्त साहसी होते हैं, वे प्राय: प्राणियों को ऊपर उछाल कर शूल पर चढ़ाते हैं, दूसरों को धोखा देते हैं, माया (छल-कपट) करते हैं, बकवृत्ति से दूसरों को ठगते हैं, दम्भ करते हैं (कहते कुछ और तथा करते कुछ और हैं), वे तौल-नाप में कम देते हैं, वे धोखा देने के लिए देश, वेष और भाषा बदल लेते हैं / 'वे दुःशील (दुराचारी या दुष्टस्वभाववाले), दुष्ट-व्रती (मांसभक्षण, मदिरापान आदि बुरे नियम वाले) और कठिनता से प्रसन्न किये जा सकने वाले (अथवा दुराचरण या दुर्व्यवहार करने में आनन्द मानने वाले) एवं दुर्जन होते हैं। जो आजीवन सब प्रकार की हिंसानों से विरत नहीं होते यहाँ तक असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से जीवनभर निवृत्त नहीं होते / जो क्रोध से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पाप स्थानों से जीवन भर निवृत्त नहीं होते। वे आजीवन समस्त स्नान, तैल-मर्दन, सुगन्धित पदार्थों का लगाना (वर्णक), सुगन्धित चन्दनादि का चूर्ण लगाना, विलेपन करना, मनोहर कर्ण शब्द, मनोज्ञ रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का उपभोग करना पुष्पमाला एवं अलंकार धारण करना, इत्यादि सब (उपभोग-परिभोगों) का त्याग नहीं करते, जो समस्त गाड़ी (शकट), रथ, यान (जलयान आकाशयान-विमान, घोडागाडी ग्रादि स्थलयान) सवारी, डोली, आकाश की तरह अधर रखी जान वाली सवारी (पालकी) आदि वाहनों तथा शय्या, आसन, वाहन, भोग और भोजन आदि (परिग्रह) को विस्तृत करने (बढ़ाते रहने) की विधि (प्रक्रिया) के जीवन भर नहीं छोड़ते, जो सब प्रकार के क्रय-विक्रय तथा माशा, आधा माशा, और तोला आदि व्यवहारों से जीवनभर निवृत्त नहीं होते, जो सोना, चांदी, धन, धान्य, मणि, मोती, शंख, शिला, प्रवाल (मूगा) आदि सब प्रकार के (बहुमूल्य पदार्थों के) संग्रह से जीवन भर निवृत्त नहीं होते, जो सब प्रकार के खोटे तौल-नाप (कम तोलने-कम नापने, खोटे बाँट या गज मीटर आदि रखने) को आजीवन नहीं छोड़ते, जो सब प्रकार के प्रारम्भसमारम्भों का जीवनभर त्याग नहीं करते / वे सभी प्रकार के (सावद्य = पापयुक्त) दुष्कृत्यों को करनेकराने से जीवनभर निवृत्त नहीं होते, जो सभी प्रकार की पचन-पाचन (स्वयं अन्नादि पकाने तथा दूसरों से पकवाने) आदि (सावद्य) क्रियाओं से ग्राजीवन निवृत्त नहीं होते, तथा जो जीवनभर प्राणियों को कूटने, पीटने, धमकाने, प्रहार करने, वध करने और बाँधने तथा उन्हें सब प्रकार से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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