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________________ योग, वैशेषिक-न्याय, मीमांसा और वेदान्त / ये नव दर्शन भारत के मूल दर्शन हैं। कुछ विद्वानों ने यह भी कहा है कि अवैदिक-दर्शन भी छह है-जैसे चार्वाक, जैन, सौत्रान्तिक वैभाषिक, योगाचार और माध्यमिक / इस प्रकार वेदान्त परम्परा के दर्शन भी छह हैं और अवैदिक दर्शन भी छह होते हैं। इस प्रकार भारत के मूल दर्शन द्वादश हो जाते हैं। न्याय और वैशेषिक दर्शन में कुछ सैद्धान्तिक भेद होते हए भी प्रकृति, आत्मा और ईश्वर के विषय में दोनों के मत समान हैं / काल क्रम से इनका एकीभाव हो गया, और अब इनका सम्प्रदाय न्याय-वैशेषिक कहा जाता है / सांख्य और योग की प्रकृति के विषय में एक ही धारणा है, यद्यपि सांख्य निरीश्वरवादी है, और योग ईश्वरवादी है / इसलिए कभी-कभी इनको एक साथ सांख्य-योग कह दिया जाता है / मीमांसा के दो सम्प्रदाय हैं, जिनमें से एक के प्रवर्तक आचार्य कुमारिल भटट हैं, और दूसरे के आचार्य प्रभाकर / इनको क्रम से भट्ट-सम्प्रदाय और प्रभाकर-सम्प्रदाय कहा जाता है / वेदान्त के भी दो मुख्य सम्प्रदाय हैं, जिनमें से एक के प्रवर्तक आचार्य शंकर हैं, और दूसरे के आचार्य रामानुज / शंकर का सिद्धान्त अद्वैतवाद अथवा केवलाद्वैतवाद के नाम से विख्यात है, और रामानुज का विशिष्टाद्वैतवाद के नाम से। वेदान्त में कुछ अन्य छोटे-छोटे सम्प्रदाय भी हैं, उन सभी का समावेश भक्तिवादी दर्शन में किया जा सकता है। वेदान्त परम्परा के दर्शनों में मीमांसा-दर्शन को पूर्व-मीमांसा और वेदान्त-दर्शन को उत्तर-मीमांसा भी कहा जा सकता है। इस प्रकार इन विभागों में वैदिक परम्परा के सभी सम्प्रदायों का समावेश आसानी से किया जा सकता है। बौद्ध दर्शन परिवर्तनवादी दर्शन रहा है। वह परिवर्तन अथवा अनित्यता में विश्वास करता है, नित्यता को वह सत्य स्वीकार नहीं करता। बौद्धों के अनेक सम्प्रदाय हैं, उनमें से वैभाषिक और सौत्रान्तिक सर्वास्तिवादी हैं। इन्हें बाह्यार्थवादी भी कहा जाता है। क्योंकि ये दोनों सम्प्रदाय समस्त बाह्य वस्तुओं को सत्य मानते हैं। वैभाषिक बाह्य प्रत्यक्षवादी हैं / इसका मत यह है कि वाह्य वस्तु क्षणिक हैं, और उनका प्रत्यक्ष शान होता है / सौत्रान्तिक बाह्यानुमेयवादी हैं। इनका मत यह है कि बाह्य पदार्थ, जो कि क्षणिक हैं, प्रत्यक्षगम्य नहीं हैं। मन में उनकी जो चेतना उत्पन्न होती है, उससे उनका अनुमान किया जाता है। योगाचार सम्प्रदाय विज्ञानवादी है। इसका मत यह है कि समस्त बाह्य वस्तु मिथ्या है, और चित्त में जो कि विज्ञान सन्तान मात्र है, विज्ञान उत्पन्न होते हैं, जो निरालम्बन हैं। योगाचार विज्ञान वादी है। माध्यमिक सम्प्रदाय का मत यह है, कि न बाह्य वस्तुओं की सत्ता है, और न आन्तरिक विज्ञानों की। ये दोनों ही संवृत्ति मात्र (कल्पना-आरोप) हैं / तत्त्य निःस्वभाव है, अनिर्वाच्य है और अज्ञेय है। कुछ बौद्ध विद्वान केवल निरपेक्ष चैतन्य को ही सत्य मानते हैं / जैन-दर्शन मूल में द्वतवादी दर्शन है / वह जीव की सत्ता को भी स्वीकार करता है, और जीव से भिन्न पुद्गल की भी सत्ता को सत्य स्वीकार करता है। जैन-दर्शन ईश्वरवादी दर्शन नहीं है। जैनों के 'चार सम्प्रदाय हैं-श्वेताम्बर; दिगम्बर, स्थानकबासी और तेरापंथी। इन चारों सम्प्रदायों में मलतत्व के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का मतभेद नहीं है। तत्व सम्बन्धी अथवा दार्शनिक किसी प्रकार का मतभेद इन चारों ही सम्प्रदायों में नहीं रहा / परन्तु आचार पक्ष को लेकर इन चारों में कुछ विचार भेद रहा है। वास्तव में अनुकम्पा--अहिंसा और अपरिग्रह की व्याख्या में मतभेद होने के कारण ही ये चारों सम्प्रदाय अस्तित्व में आये हैं। किन्तु तात्विक दृष्टि से इनमें आज तक भी कोई भेद नहीं रहा है। चार्वाकों में भी अनेक सम्प्रदाय रहे थे-जैसे चार भुतवादी और पाँच भूतबादी / इस प्रकार भारत के दार्शनिक सम्प्रदाय अपनी-अपनी पद्धति से भारतीय दर्शन-शास्त्र का विकास करते रहे हैं। भारतीय-दर्शनों के सामान्य सिद्धान्त : भारतीय-दर्शनों के सामान्य सिद्धान्तों में मुख्य रूप से चार हैं-आत्मवाद, कर्मवाद, परलोकवाद और मोक्षवाद / इन चारों विचारों में भारतीय-दर्शनों के सभी सामान्य सिद्धान्त समाविष्ट रहे हैं। जो आत्मवाद में विश्वास रखता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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