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________________ सूत्रकृतांग-सप्तम अध्ययन-कुशोल परिभाषित ही आत्मा को दण्डित करता है। संसार में तीर्थंकरों या प्रत्यक्षदर्शियों ने उसे अनार्यधर्मी (अनाड़ी या अधर्मसंसक्त) कहा है। विवेचन -कुशीलों द्वारा स्थावर जीवों की हिंसा के विविध रूप---प्रस्तुत 5 सूत्रगाथाओं (385 से 386 तक ) द्वारा शास्त्रकार ने कुशीलधर्मा कौन है ? वह किसलिए, और किस-किस रूप में अग्निकायिक, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक एवं वनस्पतिकायिक जीवों का घात करता है? इसका विशद निरूपण किया है। __भूताई जे हिसति आतसाते--इस पंक्ति का आशय यह है कि जो अपनी सुख-सुविधा के लिए, परलोक में सुख मिलेगा, या स्वर्ग अथवा मोक्ष का सुख मिलेगा, इस हेतु से, अथवा धर्मसम्प्रदाय परम्परा या रीतिरिवाज के पालन से यहां सभी प्रकार का सुख मिलेगा, इस लिहाज से अग्नि, जल, वनस्पति, पृथ्वी आदि के जीवों की हिंसा करते हैं / अथवा स्वर्गप्राप्ति की कामना से विविध अग्निहोम या पंचाग्निसेवनतप आदि क्रियाएँ करते हैं, फल फूल आदि वनस्पतिकाय का छेदन-भेदन करते हैं, वे सब कुशीलधर्मा है / अग्नि जलाने और वुझाने में अनेक स्थावर-बस जीवों की हिंसा-जो व्यक्ति इह लौकिक या पारलौकिक किसी भी प्रयोजन से अग्नि जलाता है, वह अग्निकायिक जीवों की हिंसा तो करता ही है, अग्नि जहाँ जलाई जाती है, वहाँ की पृथ्वी के जीव भी आग की तेज आँच से नष्ट हो जाते हैं, अग्नि बुझाने से अग्निकाय के जीवों का धात तो होता ही है, साथ ही बुझाने के लिए सचित्त पानी का प्रयोग किया जाता है, तब या भोजन पकाने में जलकायिक जीव नष्ट हो जाते हैं, कंडे लकड़ी आदि में कई त्रस जीव बैठे रहते हैं, वे भी आग से मर जाते हैं, पतंगे आदि कई उड़ने वाले जीव भी आग में भस्म हो जाते हैं। इस प्रकार आग जलाने और बुझाने में अनेक जीवों की हिंसा होती है, इसी बात को शास्त्रकार ने 386-387 इन दो सूत्रगाथाओं द्वारा व्यक्त किया है-"उजालो... अगणि समारभेज्जा / पुढधी पि जीवा ''अगणि समारभंते।" वृत्तिकार ने भगवती सूत्र का प्रमाण प्रस्तुत करके सिद्ध किया है कि भले ही व्यक्ति आग जलाने में महाकर्म युक्त और बुझाने में अल्प कर्मयुक्त होता है, परन्तु दोनों हो क्रियाओं में षट्कायिक आरम्भ होता है / विलंबगाणिजो जीव का आकार धारण कर लेते हैं। कुशील द्वारा हिंसाबरण का कटु विपाक 360. गम्भाइ मिज्जति बुया-बुयाणा, परा परे पंचसिहा कुमारा। जुवाणगा मज्झिम थेरगा य, चयंति ते आउखए पलीणा / / 10 / / 361. संबुज्झहा जंतवो माणुसत्तं, दळु भयं बालिसेणं अलंभो। एगंतदुक्खे जरिते व लोए, सकम्मुणा विपरियासुवेति // 11 // 3 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 156 के आधार पर 4 वही, पत्रांक 156-57 के आधार पर 5 भगवतीसूत्र शतक 7 / सूत्र 227-228 (अंगसुत्तणि भाग 2) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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