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________________ गाथा 390 से 391 335 360. (देवी-देवों की चर्चा या धर्म के नाम पर अथवा सुख-वृद्धि आदि किसी कारण से हरित वनस्पति का छेदन-भेदन करने वाले) मनुष्य गर्भ में ही मर जाते हैं, तथा कई तो स्पष्ट बोलने तक की वय में और कई अस्पष्ट बोलने तक की उम्र में ही मर जाते हैं / दूसरे पंचशिखा वाले मनुष्य कुमारअवस्था में ही मृत्यु के गाल में चले जाते हैं, कई युवक होकर तो कई मध्यम (प्रौढ़) उम्र के होकर अथवा बूढ़े होकर चल बसते हैं। इस प्रकार बीज आदि का नाश करने वाले प्राणी (इन अवस्थाओं में से किसी भी अवस्था में) आयुष्य क्षय होते ही शरीर छोड़ देते हैं। __361. हे जीवो ! मनुष्यत्व या मनुष्यजन्म की दुर्लभता को समझो। (नरक एवं तिथंच योनि के भय को देखकर एवं विवेकहीन पुरुष को उत्तम विवेक का अलाभ (प्राप्ति का अभाव) जानकर बोध प्राप्त करो। यह लोक ज्वरपीड़ित व्यक्ति की तरह एकान्त दुःखरूप है। अपने (हिंसादि पाप) कर्म से सुख चाहने वाला जीव सुख के विपरीत (दुःख) ही पाता है। विवेचन-कुशील द्वारा हिंसाचरण का कटु विपाक - प्रस्तुत गाथाद्वय में दो विभिन्न पहलुओं से कुशीलाचरण का दुष्परिणाम बताया गया है। सूत्र गाथा 360 में कहा गया है कि जो वनस्पतिकायिक आदि प्राणियों का आरम्भ अपने किसी भी प्रकार के सुखादि की वांछा से प्रेरित होकर करता है, वह उसके फलस्वरूप गर्भ से लेकर वृद्धावस्था तक में कभी भो मत्यु के मुख में चला जाता है। सत्र गाथा 391 में सामान्य रूप से कुशीलाचरण का फल सुखाशा के विपरीत दुःख प्राप्ति बतलाया गया है तथा संसार को एकान्तदुःखरूप समझकर नरक-तियंचगति में बोधि-अप्राप्ति के भय का विचार करके बोधि प्राप्त करने का निर्देश दिया गया है। पाठान्तर और व्याख्या-."जरिते व लोए'=वृत्तिकार के अनुसार-लोक को ज्वरग्रस्त की तरह समझो। चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर है-'जरिए हु लोगे' लोक को (विविध दुःखों की भट्टी में) ज्वलित की तरह या ज्वरग्रस्त की तरह ज्वलित समझो। 'मझिम थेरगाए' के वदले 'मज्झिम पोरुसा य' पाठान्तर है / अर्थ है-पुरुषों की चरमावस्था को प्राप्त / मोक्षवादी कुशीलों के मल और उनका खण्डन 362. इहेगे मूढा पवदंति मोक्खं, आहारसंपज्जणवज्जणेणं / एगे य सीतोदगसेवणेणं, हुतेण एगे पवदंति मोक्खं // 12 // 363. पाओसिणाणादिसु णत्थि मोक्खो, खारस्स लोणस्स अणासएणं / ते मज्ज मंसं लसुणं च भोच्चा, अन्नत्थ वासं परिकप्पयंति // 13 // -उत्तरा० अ० 19/15 6 देखिये -जम्म दुक्खं जरा दुक्खं रोग। य मरणाणि य / अहो दुक्खो हु संसारो जत्थ कीसंति पाणिणो / / 7 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 158 का सारांश 8 जरित्तेति 'आलित्तणं भंते ! लोए, पलितणं भंते लोए' अथवा ज्वरित इव ज्वलितः / -सूत्र कृ. चूणि (मू० पा० टि०) पृ० 70 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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