________________ पाथा 546 से 551 एकान्त क्रियावाद को गुण-दोष समीक्षा-एकान्त क्रियावादियों के मन्तव्य के सम्बन्ध में शास्त्रकार कहते हैं कि क्रियावादियों का यह कथन किसी अंश तक ठीक है कि क्रिया से मोक्ष होता है, तथा आत्मा (जीव) और सुख आदि का अस्तित्व है, परन्तु उनकी एकान्त प्ररुपणा यथार्थ नहीं है। यदि एकान्तरूप से पदार्थों का अस्तित्व माना जाएगा तो वे कथञ्चित् (परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से) नहीं हैं, यह कथन घटित नहीं हो सकेगा, जो कि सत्य है। वस्तु में एकान्त अस्तित्व मानने पर सर्ववस्तुएँ सर्ववस्तुरूप हो जाएंगी। इसप्रकार जगत् के समस्त व्यवहारों का उच्छेद हो जाएगा अतः प्रत्येक वस्तु कथञ्चित अपने-अपने स्वरूप से है, परस्वरूप से नहीं है, ऐसा मानना चाहिए। एकान्त क्रिया से मोक्ष नहीं होता, उसके साथ ज्ञान सम्यग्ज्ञान होना चाहिए / ज्ञानरहित क्रिया मात्र से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता। सभी क्रियाएँ ज्ञान के साथ फल देती हैं / दशवकालिक सूत्र में 'पढम नाणं तओ दया' की उक्ति इसी तथ्य का संकेत है। अतः ज्ञान निरपेक्ष क्रिया से या क्रिया निरपेक्ष ज्ञान से मोक्ष नहीं होता, इसीलिए शास्त्रकार स्पष्ट कहते हैं--तीर्थंकरों ने ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष कहा है। सम्यक क्रियावाद और उसके मार्गदर्शक--सूत्र गाथा 546 से 548 तक में सम्यक क्रियावाद और उसके मार्गदर्शक का निरूपण किया है, इनसे चार तथ्य फलित होते हैं--(१) लोक शाश्वत भी है, और अशाश्वत भी है। (2) चारों गतियों के जीव अपने-अपने कर्मों के अनुसार सुख दुःख पाते हैं तथा स्वतः संसार में परिभ्रमण करते हैं, काल, ईश्वर आदि से प्रेरित होकर नहीं। (3) संसार सागर स्वयम्भूरमण समुद्र के समान दुस्तर है, (4) तीर्थकर लोकचक्षु हैं, वे धर्मनायक' हैं, सम्यक् क्रियावाद के मार्गदर्शक हैं, उन्होंने संसार और मोक्ष का यथार्थ स्वरूप बताकर सम्यक क्रियावाद को प्ररूपणा की है, अथवा जीव-अजीव आदि नौ तत्त्वों के अस्तित्व-नास्तित्व की काल आदि पांचकारणों के समवसरण (समन्वय) की सापेक्ष प्ररूपणा की है। इसलिए वे इस भाव-समवसरण के प्ररूपक हैं / सम्यक् क्रियाबाद और क्रियावादियों के नेता 546. ण कम्मुणा कम्म खर्वेति बाला, अकम्मुणा उ कम्म खति धीरा। मेधाविणो लोभमयावतीता, संतोसिणो णो पकरेंति पावं // 15 // 550. ते तीत-उप्पण्ण-मणागताई, लोगस्स जाणंति तहागताई। तारो अण्णेसि अणण्णणेया, बुद्धा हु ते अंतकडा भवंति // 16 // 551. ते णेव कुव्बंति ण कारर्वेति, मूताभिसंकाए दुगुछमाणा। सया जता विप्पणमंति धीरा, विण्णत्तिवीरा य भवंति एगे // 17 / / 10 सूत्रकृ० शी० वृत्ति पत्रांक 218 से 220 तक का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org