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________________ 360 सूत्रकृतांग-एकादश अध्ययन-मार्ग 510. भूयाइं समारंभ, समुद्दिस्स य जं कडं / तारिसं तु ण गेण्हेज्जा, अन्न पाणं सुसंजते // 14 // 511. पूतिकम्मं ण सेवेज्जा, एस धम्मे वुसीमतो। .. जं किंचि अभिकखेज्जा, सब्यसो तं ण कप्पते // 15 // 506. वह साधु महान् प्राज्ञ, अत्यन्त धीर और अत्यन्त संवृत (आश्रवद्वारों का या इन्द्रिय-विषयों का निरोध किया हुआ) है, जो दूसरे (गृहस्थ) के द्वारा दिया हुआ एषणीय आहारादि पदार्थ ग्रहण करता है, तथा जो अनेषणीय आहारादि को वजित करता हुआ सदा (गवेषणा, ग्रहणैषणा एवं ग्रासैषणारूप त्रिविध) एषणाओं से सम्यक् प्रकार से युक्त रहता है। 510. जो आहार-पानी प्राणियों (भूतों) का समारम्भ (उपमर्दन) करके साधुओं को देने के उद्देश्य से बनाया गया है, वैसे (दोपयुक्त) आहार और पानी को सुसंयमी साधु ग्रहण न करे। 511. पूतिकर्मयुक्त (शुद्ध आहार में आधाकर्म आदि दोषयुक्त आहार के एक कण से भी मिश्रित) आहार का सेवन साधु न करे / तथा शुद्ध आहार में भी यदि अशुद्धि की शंका हो जाए तो वह आहार भी साधु के लिए सर्वथा ग्रहण करने योग्य (कल्पनीय) नहीं है / शुद्ध संयमी साधु का यही धर्म है। विवेचन- एषणासमिति-मार्म-विवेक- प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं में विशुद्ध आहारादि ग्रहण करने का मार्ग बताया गया है। एषणासमिति से शुद्ध आहार क्यों और कैसे ?- साधु की आवश्यकताएँ बहुत सीमित होती है, थोड़ासा आहार-पानी और कुछ वस्त्र-पात्रादि उपकरण / भगवान महावीर कहते हैं कि इस थोड़ी-सी आवश्यकता की पूर्ति वह अपने अहिंसादि महाव्रतों को सुरक्षित रखते हुए एषणासमिति का पालन करते हुए, निर्दोष भिक्षावृत्ति से करे। यदि एषणासमिति की उपेक्षा करके प्राणि-समारम्भ करके साधु के उद्देश्य से निर्मित या अन्य आधाकर्म आदि त्रिविध एषणा दोषों से युक्त, अकल्पनीय-अनेषणीय आहारपानी साधु ग्रहण करेगा तो उसका अहिंसावत दूषित हो जाएगा, बारबार गृहस्थ वर्ग भक्तिवश बैसा आहार-पानी देने लगेगा, इससे आरम्भजनित हिंसा का दोष लगेगा, गलत परम्परा भी पड़ेगी। यदि छल-प्रपंच करके आहारादि पदार्थ प्राप्त करेगा तो सत्यव्रत को क्षति पहुंचेगी, यदि किसो से जबर्दस्ती या दवाब से छीनकर या बिना दिये ही कोई आहारादि पदार्थ ले लिया तो अचौर्य-महाव्रत भंग हो जाएगा, और स्वाद-लोलुपतावश लालसापूर्वक अतिमात्रा में आहारपानी संग्रह कर लिया तो ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह महाव्रत को भी क्षति पहुंचेगी। इसीलिए शास्त्रकार एषणासमिति से शुद्ध आहार ग्रहण करने पर जोर देते हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में भी कहा गया है.--"आहार शुद्ध होने पर अन्तःकरण (मन, बुद्धि, हृदय) शुद्ध होंगे, अन्तःकरण शुद्धि होने पर स्मृति निश्चल और प्रखर रहेगी, आत्मस्मृति की स्थिरता उपलब्ध 3 सुत्रकतांग शीलांक पत्रांक 201 का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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