________________ गाथा 503 से 509 508. पभू दोसे निराकिच्चा, ण विरुज्झेज्ज केणइ / मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो // 12 // 503. पृथ्वी जीव है, पृथ्वी के आश्रित भी पथक्-पृथक् जीव हैं, जल एवं अग्नि भी जीव है, वायुकाय के जीव भी पृथक्-पृथक् हैं तथा हरित तृण, वृक्ष और बीज (के रूप में वनस्पतियाँ) भी जीव हैं। 504. इन (पूर्वोक्त पाँच स्थावर जीव निकाय) के अतिरिक्त (छठे) त्रसकाय वाले जीव होते हैं। इस प्रकार तीर्थकरों ने जीव के छह निकाय (भेद) बताए हैं। इतने ही (संसारी) जीव के भेद हैं। इसके अतिरिक्त संसार में और कोई जीव (का मुख्य प्रकार) नहीं होता। 505. बुद्धिमान पुरुष सभी अनुकूल (संगत) युक्तियों से (इन जीवों में जीवत्व) सिद्ध करके भलीभाँति जाने-देखे कि सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है (सभी सुखलिप्सु हैं), अत: किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। 506. ज्ञानी पुरुष के ज्ञान का यही सार-निष्कर्ष है कि वह किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता। अहिंसा प्रधान शास्त्र का भी इतना ही सिद्धान्त या उपदेश जानना चाहिए। 507. ऊपर, नीचे और तिरछे (लोक में) जो कोई त्रस और स्थावर जीव हैं, सर्वत्र उन सबकी हिंसा से विरति (निवृत्ति) करना चाहिए। (इस प्रकार) जीव को शान्तिमय निर्वाण-मोक्ष (की प्राप्ति कही गई) है। 508. इन्द्रियविजेता साधक दोषों का निवारण करके किसी भी प्राणी के साथ जीवनपर्यन्त मन से, वचन से या काया से वैर विरोध न करे / विवेचन-अहिंसा का मार्ग --इन छहः सूत्रगाथाओं में मोक्षमार्ग के सर्वप्रथम सोपान-अहिंसा के विधिमार्ग का निम्नोक्त सात पहलूओं से प्रतिपादन किया गया है-(१) त्रस-स्थावररूप षटकाय में जीव (चेतना) का अस्तित्व है, (2) किसी भी जीव को दुःख प्रिय नहीं है, (3) हिंसा से जीव को दुःख होता है, अतः किसी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए। (4) ज्ञानी पुरुष के ज्ञान का सार अहिंसा है / (5) अहिंसाशास्त्र का भी इतना ही सिद्धान्तसबस्व है कि लोक में जो कोई त्रस या स्थावर जीव हैं, साधक उनकी हिंसा से सदा सर्वत्र विरत हो जाए। (6) अहिंसा ही शान्तिमय निर्वाण की कुंजी है, (7) अतः मोक्ष-मार्गपालनसमर्थ व्यक्ति को अहिंसा के सन्दर्भ में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, एवं योगरूप दोषों को दूरकर किसी भी प्राणी के साथ मन-वचन-काया से जीवन भर वैर-विरोध नहीं करना चाहिए। एषणासमिति मार्ग-विवेक 506. संवुडे से महापण्णे, धोरे दत्तेसणं चरे। एसणासमिए णिच्च, वज्जयंते अणेसणं // 13 // 2 सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति पत्रांक 200 का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org