________________ प्राथमिक 375 प्रस्तुत अध्ययन में शास्त्रकार ने श्रमण को चारित्रसमाधि के लिए किसी प्रकार का संचय न करना, समस्त प्राणियों के साथ आत्मवत् व्यवहार करना, आरम्भादि प्रवृत्तियों में हाथ-पैर आदि को संयत रखना, निदान न करना, हिंसा, चौर्य, अब्रह्मचर्य आदि पापों से दूर रहना, अप्रतिबद्ध विचरण, आत्मवत् प्रेक्षण, एकत्वभावना, क्रोधादि से विरति, सत्यरति, कामना रहित तपश्चरण, तितिक्षा, वाग्गुप्ति, शुद्धलेश्या, स्त्री संपर्गनिवृत्ति, धर्मरक्षा के विचारपूर्वक पापविरति पेक्षता, कायव्युत्सर्ग, जीवन-मरणाकांक्षा रहित होना आदि समाधि प्राप्ति के उपायों का तथा समाधि भंग करने वाला स्त्रीसंसर्ग, परिग्रह-ममत्व, भोगाकांक्षा आदि प्रवृत्तियों से दूर रहने का निर्देश किया है / तथा ज्ञान-समाधि एवं दर्शनसमाधि के लिए शंका, कांक्षा आदि से तथा एकान्त क्रियावाद एवं एकान्त अक्रियावाद से भी दूर रहना आवश्यक बताया है। इस अध्ययन का उद्देश्य साधक को सभी प्रकार की असमाधियों तथा असमाधि उत्पन्न करने वाले कारणों से दूर रखकर चारों प्रकार की भाव समाधि में प्रवृत्त करना है। 0 चारों प्रकार की भावसमाधि की फलश्रुति वृत्तिकार के शब्दों में-(१) दर्शन-समाधि में स्थित साधक का अन्तःकरण जिन-प्रवचन में रंगा होने से वह कुबुद्धि या कुदर्शन-रूपी अन्धड़ से विचलित नहीं होता, (2) ज्ञान-समाधि द्वारा साधक ज्यों-ज्यों नवीन-नवीन शास्त्रों का अध्ययन करता है, त्यों-त्यों अतीव रसप्राप्ति, मोक्ष प्राप्ति की श्रद्धा में वृद्धि एवं आत्म-प्रसत्रता होती है। (3) चारित्रसमाधि में स्थित मुनि विषयसुख निःस्पृह, निष्किचन एवं निरपेक्ष होने से परम शान्ति पाता है। (4) तपःसमाधि में स्थित मुनि उस्कट तप करता हुआ भी घबराता नहीं, न ही क्षुधा-तृषा आदि परीषहों से उद्विग्न होता है, तथा ध्यानादि आभ्यन्तर तप में लीन साधक मुक्ति का-सा आनन्द (आत्मसुख) प्राप्त कर लेता है, फिर वह सुख-दुःखादि द्वन्द्वों से पीड़ित नहीं होता। 0 प्रस्तुत अध्ययन उद्देशक रहित है और इसमें कुल 24 गाथाएँ हैं / - यह अध्ययन सूत्रगाथा 473 से प्रारम्भ होकर 466 में पूर्ण होता है। 4 (क) सूयगडंगसुत्त (मूलपाठ टिप्पण) पृ० 85 से 86 तक का सारांश (ख) जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भा० 1 पृ० 150 5 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 187 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org