________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 710 / 77 (14) कोई पापात्मा शिकारी कुत्तों को रख कर श्वपाक (चाण्डाल) वृत्ति अपना कर ग्राम आदि के अन्तिम सिरे पर रहता है और पास से गुजरने वाले मनुष्य या प्राणी पर शिकारी कुत्त छोड़ कर उन्हें कटवाता है फड़वाता है, यहां तक कि जान से मरवाता है / वह इस प्रकार का भयंकर पापकर्म करने के कारण महापापी के रूप में प्रसिद्ध हो जाता है। ७१०–से एगतिलो परिसामझातो उद्वित्ता अहमेयं हंछामि त्ति कटु तित्तिरं वा वट्टगं वा लावगं वा कवोयगं वा कवि वा कविजलं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवति / से एगतियो केणइ आदाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा खलदाणेणं' अदुवा सुराथालएणं' गाहावतीणं वा गाहावइपुत्ताण वा सयमेव अगणिकाएणं सस्साई भामेति, अण्णण वि अगणिकाएणं सस्साइं झामावेति, अगणिकाएणं सस्साई झामंतं पि अण्णं समणुजाणति, इति से महता पाहि कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति / से एगतिलो केणइ आयाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं गाहावतीण वा गाहावइपुत्ताण वा उट्टाण वा गोणाण वा घोडगाण वा गद्दभाण वा सयमेव धुरानो कप्पेति, अण्णेण वि कप्पावेति, कप्पंत पि अण्णं समणुजाणति, इति से महया जाव भवति / से एगतियो केणइ प्रादाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं गाहावतीणं वा गाहावतिपुत्ताणं वा उट्टसालानो वा गोणसालाप्रो वा घोडगसालाप्रो वा गद्दभसालानो वा कंटगबोंदियाए पडिपेहित्ता सयमेव अगणिकाएणं झामेति, अण्णेण वि झामावेति, झामतं पि अन्नं समणुजाणइ, इति से महया जाव भवति / ___ से एगतियो केणइ प्रायाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं गाहावतीणं वा गाहावइपुत्ताणं वा कुडलं वा गुणं वा मणि वा मोत्तियं वा सयमेव अवहरति, अन्नेण वि अवहरावेति, अवहरतं पि अन्नं समणुजाति, इति से महया जाव भवति / 1. खलदाणेण-चूणि सम्मत अर्थ-खलकेदाणं खलभिक्खं तदूर्ण दिण्णं, ण दिण्णं, तेण विरुद्धो-अर्थात्-तुच्छ वस्तु की भिक्षा दी, या कम दी, या नहीं दी, इस कारण विरुद्ध प्रतिकूल होकर / वृत्ति सम्मत अर्थ-खलस्य कुथितादि विशिष्टस्य दानम्, खलके वाल्पधान्यादेनिं खलदानम् तेन कुपितः / अर्थात् सड़ीगली, तुच्छ आदि खराव वस्तु का दान, अथवा दुष्ट--खल देखकर अल्पधान्य प्रादि का दान देना खलदान है, इसके कारण कूपित होकर / 2. सुराथालएणं-चूर्णिमम्मत अर्थ--थालगेण सुरा पिज्जति, तन्थ परिवाडीए आवेट्ठस्स वारो ण दिण्णो, उट्ठवितो वा, तेण विरुद्धो / अर्थात--सुरापान करने के पात्र (ध्याली) से सुरा (मदिरा) पी जा सकती है। अतः मदिरापान के समय पंक्ति में बैठे हुए उस व्यक्ति की सुरापान करने की बारी नहीं आने दी या उसे पंक्ति में से उठा दिया, इस अपमान के कारण विरुद्ध होकर, वृत्तिसम्मत अर्थ--सुरायाःस्थालक कोशकादि, तेन विवक्षितलाभाभावात कुपितः / अर्थात--सुरापान करने का स्थालक-चषक--(प्याला) आदि पात्र, उससे अभीष्ट लाभ न होने से कुपित होकर। -सूत्रकृतांग (मूलपाठ टिप्पण युक्त) पृ. 169 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org