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________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 677 ] [41 (10) ज्ञातिजन तो प्रत्यक्षत: भिन्न प्रतीत होते हैं, उनसे भी निकटतर ये शरीरसम्बन्धित हाथ पर आदि अवयव अथवा प्रायु, बल, वर्ण, कान्ति आदि पदार्थ हैं, जिन पर मनुष्य ममत्व करता है / यद्यपि वय से वृद्ध होने पर उसके इन सब अंगों या शरीरसम्बद्ध पदार्थों का ह्रास हो जाता है तथा एक दिन आहारादि से संबंधित इस शरीर को छोड़कर जाना पड़ता है। (11) यह जान कर भिक्षावृत्ति के लिए समुत्थित वह भिक्षु जीव (आत्मा) और अजीव (आत्मवाह्य ) का, तथा त्रस और स्थावर जीवों का सम्यक् परिज्ञान कर लेता है / निष्कर्ष यह है कि इन्हीं परिज्ञानभित वैराग्योत्पादक सूत्रों के आधार पर वह प्रवजित होने वाला साधक दीक्षाग्रहण से पूर्व क्षेत्र. वास्तु आदि परिग्रहों, शब्दादि काम-भोगों, ज्ञातिजनों तथा शरीर सम्बन्धित पदार्थों से अवश्य ही विरक्त हो जाता है।" गृहस्थवत् आरम्भपरिग्रहयुक्त श्रमण-माहन और इन दोनों से मुक्त निर्ग्रन्थ भिक्षु 677-[1] इह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगतिया समण-माहणा सारंभा सपरिग्गहा, जे इमे तस-थावरा पाणा ते सयं समारंभंति, अण्णण वि समारंभावेंति, अण्णं पि समारंभंतं समणुजाणंति / [2] इह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगतिया समण-माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, जे इमे कामभोगा सचित्ता वा अचित्ता वा ते सयं चेव परिगिण्हंति, अण्णेण वि परिगिण्हावेंति, अण्णं पि परिगिण्हतं समणुजाणंति / [3] इह खलु गारस्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगतिया समणा माहणा वि सारंमा सपरिग्गहा, अहं खलु अणारंभे अपरिग्गहे / जे खलु गारस्था सारंमा सपरिग्गहा, संतेगतिया समण-माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, एतेसि चेव निस्साए बंभचेरं चरिस्सामो, कस्स णं तं हे? जहा पुव्वं तहा प्रवरं, जहा अवरं तहा पुत्वं / अंजू चेते अणुवरया अणुवट्टिता पुणरवि तारिसगा चेव / 677-[1] इस लोक में गृहस्थ आरम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं. (क्योंकि गृहकार्यों को करने में उन्हें प्रारम्भ करना तथा धन-धान्यादि का परिग्रह भी रखना पड़ता है), कई श्रमण और ब्राह्मण (माहन) भी प्रारम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं, क्योंकि वे भी गृहस्थ की तरह कई सावधक्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं, धन-धान्य, मकान, खेत आदि परिग्रह भी रखते हैं) वे गृहस्थ तथा श्रमण और ब्राह्मण इन त्रस और स्थावर प्राणियों का स्वयं प्रारम्भ करते हैं, दूसरे के द्वारा भी प्रारम्भ कराते हैं और प्रारम्भ करते हुए अन्य व्यक्ति को अच्छा मानते-अनुमोदन करते हैं / (2) इस जगत् में गृहस्थ तो प्रारम्भ और परिग्रह से युक्त होते ही हैं, कई श्रमण एवं माहन भी प्रारम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं। ये गृहस्थ तथा श्रमण और माहन (ब्राह्मण) सचित्त और अचित्त दोनों प्रकार के काम-भोगों को स्वयं ग्रहण करते हैं, दूसरे से भी ग्रहण कराते हैं तथा ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करते हैं / 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 292 से 294 तक का सारांश. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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