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________________ 40 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध विवेचन—भिक्षावृत्ति के लिए समुद्यत भिक्षु के लिए बैराग्योत्पादक परिज्ञानसूत्र-प्रस्तुत दशसूत्रों (सू. सं. 667 से 676 तक) में प्रात्मा से भिन्न समस्त सांसारिक सजीव-निर्जीव पदार्थों एवं काम-भोगों से विरक्त होकर प्रवजित होने की भूमिका के कतिपय परिज्ञानसूत्र प्रस्तुत किये हैं। वे इस प्रकार हैं (1) आर्य-अनार्य आदि अनेक प्रकार के मनुष्यों में से कई क्षेत्र, वास्तु तथा जन (ज्ञातिजन आदि) एवं जानपद का थोड़ा या बहुत परिग्रह रखते हैं। (2) उनमें से तथाकथित कुलों में जन्मे कुछ व्यक्ति प्रव्रजित होने के लिए तत्पर होते हैं। (3) उनमें से कई विद्यमान और कई अविद्यमान स्वजन, परिजन एवं भोगोपभोग साधनों को छोड़ कर दीक्षाग्रहण करने के लिए उद्यत होते हैं। (4) उन्हें यह जान लेना चाहिए कि सांसारिक दृष्टि वाले क्षेत्र-वास्तु आदि परिग्रह एवं शब्दादि काम-भोगों को अपना और स्वयं को उनका समझते हैं। (5) वह दीक्षा ग्रहण से पूर्व ही यह जान ले कि ये कामभोग किसी अनिष्ट दुःख या रोग के होने पर प्रार्थना करने पर भी उस दुःख या रोगातंक को बांट लेने या उससे छुड़ाने में समर्थ नहीं होते, न ही रक्षण एवं शरणप्रदान में समर्थ होते हैं। (6) बल्कि कभी तो मनुष्य रोगादि कारणवश स्वयं इन कामभोगों को पहले छोड़ देता है, या कभी ये मनुष्य को छोड़ देते हैं। (7) अत: ये कामभोग मुझ से भिन्न है, मैं इनसे भिन्न हूँ, इस परिज्ञान को लेकर कामभोगों में मूच्छित न होकर उनका परित्याग करने का संकल्प करता है। (8) वह मेधावी साधक यह जान ले कि कामभोग तो प्रत्यक्ष बाह्य हैं, परन्तु इनसे भी निकटतर माता-पिता आदि ज्ञातिजन हैं, जिन पर मनुष्य ममत्व करता है, ज्ञातिजनों को अपना और अपने को ज्ञातिजनों का मानता है। परन्तु वह मेधावी दीक्षाग्रहण से पूर्व ही यह जान ले कि ये ज्ञातिजन भी किसी अनिष्ट, दुःख या रोगातंक के ग्रा पड़ने पर प्रार्थना करने पर भी उस अप्रिय दुःख या रोगातंक को बांट लेने या उससे छुड़ाने में समर्थ नहीं होते, न ही वे वाण या शरण प्रदान कर सकते हैं। और न ही वह मनुष्य उन ज्ञातिजनों की प्रार्थना पर उन पर आ पड़े हुए अनिष्ट दुःख या रोगातंक को बांट कर ले सकता है, न उससे उन्हें, छुड़ा सकता है / / (8) कारण यह है कि दूसरे का दुःख न तो दूसरा ले सकता है, न ही अन्यकृत कर्म का फल अन्य भोग सकता है / जीव अकेला जन्मता, मरता है, परिग्रहादि संचय करता है, उनका उपभोग करता है, व्यक्ति अकेला ही कषाय करता है, अकेला ही ज्ञान प्राप्त करता है, अकेला ही चिन्तनमनन, अकेला ही विद्वान होता है, अकेला ही सुख-दुःखानुभव करता है, इसलिए ज्ञातिजन रक्षा करने या शरण देने में समर्थ नहीं हो सकते / कभी तो किसी कारणवश मनुष्य पहले ही अपने ज्ञातिजनों को छोड़ देता है, कभी वे उसे पहले छोड़ देते हैं। इसलिए ज्ञातिजन मुझ से भिन्न हैं, मैं ज्ञातिजन से भिन्न हूँ, फिर क्यों ज्ञातिजनों के साथ प्रासक्तिसम्बन्ध रखू? यह जान कर ही वह ज्ञातिजनों के प्रति आसक्तियुक्त संयोग को छोड़ने का संकल्प करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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