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________________ आद्रकीय : छठा अध्ययन : सूत्र 798-800] [169 करते हो। प्रावादुकगण (धर्मव्याख्याकार) अपने-अपने धर्म-सिद्धान्तों की पृथक-पृथक् व्याख्या (या प्रशंसा करते हुए अपनी-अपनी दृष्टि या मान्यता प्रकट करते हैं / ७६८-ते अण्णमण्णस्स वि गरहमाणा, अक्खंति उ समणा माहणा य / सतो य प्रत्थी असतो य णत्थी, गरहामो दिढि ण गरहामो किंचि // 12 // ७६६-ण किचि रूवेणऽभिधारयामो, सं दिदिमागं तु करेमो पाउं। मग्गे इमे किट्टिते प्रारिएहिं, अणुत्तरे सप्पुरिसेहि अंजू // 13 // ७६८-७६६----(आर्द्र क मुनि गोशालक से कहते हैं---) वे (अन्यधर्मतीथिक) श्रमण और ब्राह्मण परस्पर एक-दूसरे की निन्दा करते हुए अपने-अपने धर्म की प्रशंसा करते हैं / अपने धर्म में कथित अनुष्ठान से ही पुण्य धर्म या मोक्ष होना कहते हैं, दूसरे धर्म में कथित क्रिया के अनुष्ठान से नहीं।' हम उनकी (इस एकान्त व एकांगी) दृष्टि की निन्दा करते हैं, किसी व्यक्ति विशेष की निन्दा नहीं करते। हम किसी के रूप, वेष आदि की निन्दा नहीं करते, अपितु हम अपनी दृष्टि (अनेकान्तात्मक दर्शन) से पुनीत मार्ग (यथार्थ वस्तु स्वरूप) को अभिव्यक्त करते हैं / यह मार्ग अनुत्तर (सर्वोत्कृष्ट) है, और आर्य सत्पुरुषों ने इसे ही निर्दोष कहा है। ८००-उड्ड़ अहे य तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा। भूयाभिसंकाए दुगुछमाणा, णो गरहति वुसिमं किंचि लोए // 14 // ८००--ऊर्ध्व दिशा अधोदिशा एवं तिर्यक् (तिरछी-पूर्वादि) दिशाओं में जो जो त्रस या स्थावर प्राणी हैं. उन प्राणियों की हिंसा (की आशंका) से घणा करने वाले संयमी पुरुष इस लोक में किसी को निन्दा नहीं करते / (अत: वस्तु के यथार्थ स्वरूप का निरूपण करना निन्दा नहीं है।) विवेचन-दार्शनिकों के विवाद के सम्बन्ध में गोशालक की दृष्टि का समाधान प्रस्तुत 4 सूत्र गाथाओं में पाक पर-निन्दा करने का आक्षेप और आर्द्र क द्वारा किया गया स्पष्ट समाधान अंकित है। गोशालक द्वारा पर-निन्दा का प्राक्षेप-"विभिन्न दार्शनिक अपनी-अपनी दृष्टि से सचित्त जलादि-सेवन करते हुए धर्म, पुण्य या मोक्ष बताते हैं, परन्तु तुमने उनकी निन्दा करके अपना अहंकार प्रदर्शित किया है।" प्रार्द्र क द्वारा समाधान -(1) समभावी साधु के लिए व्यक्तिगत रूप, वेष आदि की निन्दा करना अनुचित है। हम किसी के वेषादि की निन्दा नहीं करते। सत्य मार्ग का कथन करना हो हमारा उद्देश्य है। (2) अन्य धर्मतीथिक ही एकान्त दृष्टि से स्वमतप्रशंसा और परमतनिन्दा करते हैं। हम तो अनेकान्तदष्टि से वस्तुस्वरूप का यथार्थ कथन कर रहे हैं। मध्यस्थभाव से सत्य की अभिव्यक्ति करना निन्दा नहीं है।' जैसे नेत्रवान् पुरुष अपनी आँखों से बिल, काँटे, कीड़े और सांप 1. सूत्रकृतांग शीलांकवत्ति 392 का सारांश / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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