________________ 170] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध आदि को देख कर उन सबको बचा कर ठीक रास्ते से चलता है, दूसरों को भी बताता है। इसी तरह विवेकी पुरुष कुज्ञान, कुश्रुति, कुमार्ग और कुदृष्टि के दोषों का सम्यक विचार करके चलता-चलाता है, ऐसा करने में कौन-सी पर-निन्दा है ?"1 (3) वस्तुतः आर्यपुरुषों द्वारा प्रतिपादित सम्यग-दर्शनज्ञान-चारित्र रूप मोक्षमार्ग ही कल्याण का कारण है, इससे विपरीत त्रस-स्थावर प्राणिहिंसाजनक, अब्रह्मचर्यसमर्थक कोई भी मार्ग हो, वह संसार का अन्तकारक एवं कल्याणकारक नहीं है / ऐसा वस्तु-स्वरूपकथन निन्दा नहीं है। भीर होने का आक्षेप और समाधान ८.१-प्रागंतागारे आरामागारे, समणे उ भीते ण उवेति वासं। दक्खा हु संती बहवे मणूसा, ऊणातिरित्ता य लवालवा य // 15 // ८०२-मेहाविणो सिक्खिय बुद्धिमंता, सुत्तेहि अत्थेहि य निच्छयण्णू / पुच्छिसु मा णे अणगार एगे, इति संकमाणो ण उवेति तत्थ // 16 // ८०१-८०२---(गोशालक ने पुनः आर्द्र कमुनि से कहा--) तुम्हारे श्रमण (महावीर) अत्यन्त भीरु (डरपोक) हैं, इसीलिए तो पथिकागारों (जहाँ बहुत-से आगन्तुक-पथिक ठहरते हैं, ऐसे गृहों) में तथा पारामगृहों (उद्यान में बने हुए घरों) में निवास नहीं करते, (कारण, वे सोचते हैं कि) उक्त स्थानों में बहुत-से (धर्म-चर्चा में) दक्ष मनुष्य ठहरते हैं, जिनमें कोई कम या कोई अधिक वाचाल (लप-लप करने वाले) होते हैं, कोई मौनी होते हैं। (इसके अतिरिक्त) कई मेधावी, कई शिक्षा प्राप्त, कई बुद्धिमान् प्रोत्पत्तिको आदि बुद्धियों से सम्पन्न तथा कई सूत्रों और अर्थों के पूर्ण रूप से निश्चयज्ञ होते हैं / अत: दूसरे अनगार मुझ से कोई प्रश्न न पूछ बैठे, इस प्रकार की आशंका करते हुए वे (श्रमण भ. महावीर) वहां नहीं जाते / 803- नाकामकिच्चा ण य बालकिच्चा, रायाभियोगेण कुतो भएणं / _ वियागरेज्जा पसिणं न वावि, सकामकिच्चेणिह आरियाणं // 17 // ८०३---(प्रार्द्र क मुनि ने उत्तर दिया-) भगवान् महावीर स्वामी (पेक्षापूर्वक किसी कार्य को करते हैं, इसलिए) अकामकारी (निरूद्देश्यकार्यकारी) नहीं हैं, और न ही वे बालकों की तरह (अज्ञानपूर्वक एवं अनालोचित) कार्यकारी हैं / वे राजभय से भी धर्मोपदेश नहीं करते, फिर अन्य (लोगों के दबाव या) भय से करने की तो बात ही कहाँ ? भगवान् प्रश्न का उत्तर देते हैं और नहीं भी देते / वे इस जगत् में आर्य लोगों के लिए तथा अपने तीर्थकर नामकर्म के क्षय के लिए धर्मोपदेश करते हैं। ८०४-गंता व तत्था अदुवा अगता, वियागरेज्जा समियाऽऽसुपण्णे। प्रणारिया दंसणतो परित्ता, इति संकमाणो ण उवेति तत्थ // 18 // 1. नेत्रनिरीक्ष्य बिल-कण्टक-कीट सान सम्यक्पथा व्रजति तान् परिहृत्य सर्वान् / कूज्ञान-कूश्र ति-कूमार्ग-कुदष्टि-दोषान, सम्यक विचारयत कोऽत्र परापवादः ? -सूत्रकृ. शो. वृत्ति में उद्घ त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org