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________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 84 से 86 107 प्रकट करे, उससे किसी प्रकार का मोह सम्बन्ध भी न रखे। उससे निलिप्त, अनासक्त, निःस्पृह और निर्मोह रहो का प्रयत्न करे, अन्यथा उसका पंच महाव्रत रूप चारित्र खतरे में पड़ सकता है, आचार शैथिल्य आने की सम्भावना है, वह समाज (गृहस्थ वर्ग) के बीच रहता हुआ भी उसके गार्हस्थ्य प्रपंच (व्यवसाय या वैवाहिक कर्म आदि) से जलकमलवत् निलिप्त रहे। इसीलिए चारित्रशुद्धि हेतु शास्त्रकार कहते हैं'सितेहिं असिते भिक्खू-अर्थात् भिक्षु गृहपाशादि में सित-बद्ध-आसक्त गृहस्थों में असित-अनवबद्ध अर्थात् भूछी न करता हुआ जल-कमलवत् अलिप्त होकर रहे / " 10. मोक्ष होने तक संयम में उद्यम करे-यह अन्तिम और सबसे महत्त्वपूर्ण विवेकसूत्र है / चारित्र पालन के लिए साधु को तन-मन-वचन से होने वाली प्रत्येक प्रवृत्ति में सावधान रहना आवश्यक है / उसे प्रत्येक प्रवृत्ति में संयम में दृढ़ रहना है / मुक्त होने के लिए ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप संयम में सतत उद्यम करते रहना है, उसकी कोई भी प्रवृत्ति कर्मबन्धनयुक्त न हो, प्रत्येक प्रवृत्ति कर्मबन्धन से मुक्ति के लिए हो। प्रवृत्ति करने से पहले उसे उस पर भलीभाँति चिन्तन कर लेना चाहिए कि मेरी इस प्रवृत्ति से कर्मबन्ध होगा या कर्म-मोक्ष ? अगर किसी प्रवृत्ति के करने से सस्ती प्रतिष्ठा या क्षणिक वाहवाही मिलती हो, अथवा प्रसिद्धि होती हो, किन्तु वह कर्मबन्धनकारक हो तो उससे दूर रहना उचित है। किसी प्रवृत्ति के करने से मोक्षमार्ग का मुख्य अंग-चारित्र या संयम जाता है, नष्ट होता है, तो उसे भी करने का विचार न करे / अथवा इस विवेक सूत्र का यह आशय भी सम्भव है कि मोक्ष होने तक बीच में साधनाकाल में कोई परीषह, उपसर्ग, संकट या विषम परिस्थिति आ जाए, तो भी साधु अपने संयम में गति-प्रगति करे, वह संयम (चारित्र) को छोड़ने का कतई विचार न करे / जैसे सत्त्वशाली प्रवासी पथिक जब तक अपनी इष्ट मंजिल नही पा लेता, तब तक चलना बन्द नहीं करता, या नदी तट का अन्वेषक जब तक नदी तट न पाले, तब तक नौका का परित्याग नहीं करता, इसी तरह जब तक समस्त दुःखों (कर्मों) को दूर करने वाले सर्वोत्तम सुखरूप मोक्ष की प्राप्ति न हो जाये तव तक मोक्षार्थी को संयम-पालन करना चाहिए / अन्यथा, कर्मबन्धन काटने के लिए किया गया उसका अब तक का सारा पुरुषार्थ निष्फल हो जायेगा। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं—'आमोक्खाए परिव्यएज्जासि / " निष्कर्ष यह है कि समस्त कर्मों के क्षय (मोक्ष) के लिए सतत संयम में पराक्रम करता रहे; ऐसा करना चारित्र शुद्धि के लिए आवश्यक है। 31 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 52 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखवोधिनी व्याख्या पु० 280 (ग) सितेहि =सितेषु गृहपाशादिषु सिता:-बद्धा:-आसक्ताः ये ते सिता:-गृहस्थास्तेषु गृहस्थेषु असित:-अनवबव: मूर्छामकुर्वाणः / यथा पंके जायमाने जले च वर्धमानमपि कमल न पंकेन जलेन वा स्पृष्टं भवति, किन्तु निलिप्तमेव तिष्ठति जलोपरि, तथैव तेषु सम्बन्धरहितो भवेत् / " -सुत्रकृतांग समयार्थबोधिनी भा० 110 456 32 (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पु० 280 (ख) सूत्रकृतांग समयार्थबोधिनी टीका आ० 110 460-461 (ग) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति; भाषानुवाद सहित भा. 1 पृ 161 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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