________________ 106 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय 5. इन तीन स्थानों में मुनि सतत संयत रहे-पूर्व गाथा में क्रियापद नहीं है, इसलिए ८७वीं सूत्र गाथा के पूर्वार्द्ध में शास्त्रकार ने यह पंक्ति प्रस्तुत की है कि एतेहिं तिहिं ठाणेहिं संजते सततं मुणो-अर्थात् -इन (पूर्वोक्त) तीन स्थानों (समितियों) में मुनि सतत सम्यक् प्रकार से यतनाशील रहे। इससे प्रतिक्षण अप्रमत्त होकर रहना भी सूचित कर दिया है / 6. कषाय-चतुष्टय का परित्याग करे-कषाय भी कर्मबन्ध का एक विशिष्ट कारण है। कषाय मुख्यतया चार प्रकार के हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ / साधु जीवन में कोई भी कषाय भड़क उठेगा, या तीव्र हो जायेगा, वह सीधा चारित्र का घात कर देगा। बाहर से उच्च क्रिया पालन करने पर भी साधक में अभिमान, कपट, लोभ (आसक्ति) या क्रोध की मात्रा घटने के बजाय बढ़ती गई तो वह उसके साधुत्व को चौपट कर देगी, साधु धर्म का मूल चारित्र है, वह कषाय विजय न होने से दुषित हो जाता है। इसीलिए शास्त्रकार ने कहा-"उक्कसं जलणं णूमं मज्झत्थं च विगिचए'- मान, क्रोध, माया और लोभ का परित्याग करे, इन चारों के लिए क्रमशः इन चार पदों का प्रयोग किया गया है। 7. साधु सदा समित होकर रहे- यद्यपि वृत्तिकार 'समिते सदा साहू' इस विवेकसूत्र का अर्थ करते हैं कि 'साधु पंच समितियों से समित-युक्त हो / 26 ___8. पंच महाव्रत रूप संवर से संवृत्त हो--पाँच महाव्रत कहें या प्राणातिपात-विरमण आदि पाँच संवर कहें, बात एक ही है। ये पंच संवर कर्मास्त्रव को रोकने वाले हैं, कर्मबन्ध के निरोधक हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो साधु-जीवन के ये पंच प्राण हैं। इनके बिना साधु-जीवन निष्प्राण हैं। इसलिए साधु को चाहिए कि चारित्र के मलाधार. इन पाँच महाव्रतों (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य प्राणप्रण से सुरक्षित (गुप्त) रखें / अन्यथा चारित्रशुद्धि तो दूर रही, चारित्र का ही विनाश हो जायेगा। इसीलिए शास्त्रकार ने विवेकसूत्र बताया "पंचसंवर संवुडे / " ___6. गृहपाश-बद्ध गृहस्थों में आसयत न हो-यह विवेकसूत्र भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। स्थविरकल्पी साधु को आहार, पानी, आवास, प्रवचन आदि को लेकर बार-बार गृहस्थ वर्ग से सम्पर्क आता है। ऐसी स्थिति में उससे सम्बन्ध रखे बिना कोई चारा नहीं, किन्तु साधुगृहस्थों से-गृहस्थ के पत्नी, पुत्र, मातापिता आदि पारिवारिकजनों से सम्पर्क रखते हुए भी उनके मोहरूपी पाश-बन्धनों में न फँसे, वह रागद्वेषादिवश गृहस्थ वर्ग की झूठी निन्दा-प्रशंसा, चाटुकारी आदि न करे, न ही उसके समक्ष दीनता-हीनता 28 (क) सूत्रकृतांग शीलोक वृत्ति पत्रांक 52 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 276 26 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 52 (ख) देखिये आचारांगसूत्र में 'समित' के तीन अर्थ- (1) समिते एयाणुपस्सी (आचा० 112 / 3 / 76) समिते सम्यग्दृष्टिसम्पन्न, (2) "..."उवसंते समिते सहिते।"-(१।३।२।११६) समिते- सम्यक् प्रवृत्त / “अहियासए सदा समिते""समिते-समभाव में प्रवृत्त युक्त होकर (आचा० 112 / 286) 30 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 52 (स) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या आ०१ पृ० 276 Jain Egiucation International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org