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________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 86 से 80 2. आहारावि में गति (आसक्ति) रहित रहे-समस्त प्रपंच-त्यागी साधु जब जिह्वालोलुप अथवा प्रलोभनकारी आहार, वस्त्र या अन्य धर्मोपकरण-सामग्री, अथवा संघ, पंथ, गच्छ, उपाश्रय, शिष्य-शिष्या भक्त-भक्ता आदि की आसक्ति में फंस जाता है तो उसका अपरिग्रह महावत दूषित होने लगता है। वह बाहर से तो साधुवेष एवं साधु समाचारी (क्रिया आदि) से ठीक-ठीक लगता है, पर अन्दर से सजीवनिर्जीव, मनोज्ञ अभीष्ट पदार्थों की ममता, मूर्छा, आसक्ति एवं वासना से उसका चारित्र खोखला होने लगता है। इसी दृष्टि से शास्त्रकार चारित्र शुद्धि हेतु कहते हैं-विगयगेही / इसका संस्कृत रूपान्तर 'विगतगृद्धिः' के बदले विगतगेही भी हो सकता है, जिसका अर्थ होता है-गृहस्थों से या घर से जिसका ममत्व-सम्बन्ध हट गया है, ऐसा साधु / 26 3. रत्ननयरूप मोक्ष साधन का संरक्षण करे-साधु दीक्षा लेते समय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं पंचमहाव्रतादि रूप सम्यक् चारित्र अंगीकार कर लेता है। इनको प्रतिज्ञा भी कर लेता है, किन्तु बाद में हीनाचार, संसर्ग, शिथिल वातावरण आदि के कारण प्रमादी बन जाता है, वह लापरवाही करने लगता है, बाहर से वेष साधु का होता है, क्रिया भी साधु की करता है, किन्तु प्रमादी होने के कारण सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय में दोष लगाकर मलिन करता जाता है। अतः शास्त्रकार चारित्र शुद्धि की दृष्टि से कहते हैं-आयाणं संरक्खए - अर्थात् जिसके द्वारा मोक्ष का आदान--ग्रहण हो, वह आदान या आदानीय ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप रत्नत्रय है / 27 उस मोक्षमार्ग-कर्मबन्धन से मुक्ति के साधन का सम्यक् प्रकार से रक्षण करना-उसे सुरक्षित रखना चाहिए। रत्नत्रय की उन्नति या वृद्धि हो, वैसा प्रयत्न करना चाहिए। 4. इर्यादि समितियों का पालन करे--साध को अपनी प्रत्येक प्रवत्ति (गमनागमन, आसन, शयन, भोजन, भाषण, परिष्ठापन, निक्षेपण आदि हर क्रिया) विवेकपूर्वक करनी चाहिए। अगर वह अपनी प्रवृत्ति विवेकपूर्वक नहीं करेगा तो उसकी प्रवृत्ति, हिंसा, असत्य, चौर्य, कुशील, परिग्रह आदि दोषों से दुषित होनी सम्भव है, ऐसी स्थिति में उसका चारित्र विराधित-खण्डित हो जायेगा, उसके महाव्रत दूषित हो जायेंगे। अतः चारित्र शुद्धि की दृष्टि से इर्या समिति; आदाननिक्षेपण समिति एवं एषणा समिति को अप्रमत्ततापूर्वक पालन करने का संकेत है। उपलक्षण से यहाँ भाषासमिति और परिष्ठापना समिति का संकेत भी समझ लेना चाहिए। इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं-'चरियाऽऽसणसेज्जासु भत्तपाणे य अंतसो'- अर्थात्-चर्या एवं आसन (चलने-फिरने एवं बैठने आदि) में सम्यक् उपयोग रखे-इर्यासमिति का पालन करे, तथा शय्या (सोने तथा शयनीय बिछौने, पट्ट आदि) का भलीभाँति प्रतिलेखन (अबलोकन) प्रमार्जन करे-आदान निक्षेपणा समिति का पालन करे, एवं निर्दोष आहारपानी ग्रहण-सेक रखे-एषणासमिति का पालन करे / आहारपानी के लिए जब भिक्षाटन करेगा-गृहस्थ के घर में प्रवेश करेगा, तब भाषण-सम्भाषण होना भी सम्भव है, तथा आहार-पानी का सेवन करने पर उच्चार-प्रस्रवण भी अवश्यम्भावी है, इसलिए इन दोनों में विवेक के लिए एषणासमिति के साथ ही भाषा समिति और परिष्ठापन समिति का भी समावेश यहां हो जाता है। 26 विगता अपगता आहारादौ गृद्धिर्यस्याऽसौ विगतमृद्धिः साधुः / 27 'आदीयते"मोक्षो येन तदादानीयं-ज्ञानदर्शनचारित्रत्रयम् ।"---सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 52 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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