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________________ 122 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध कम्म० जाव मेहुणपत्तिए नामं संजोगे समुपज्जति, ते दुहतो सिणेहं [संचिणंति, संचिणित्ता] तत्थ णं जीवा इस्थित्ताए पूरिसत्ताए जाव विउ ति, ते जीवा माउं प्रोयं पिउं सूक्कं एवं जहा मणुस्साणं जाव इत्थि वेगता जणयंति पुरिसं पि नसगं पि, ते जीवा इहरा समाणा मातु खीरं सप्पि आहारति अणुपुवेणं बुड्ढा वणस्सतिकायं तसथावरे य पाणे, ते जीवा प्राहारेंति पुढविसरोरं जाव संतं, प्रवरे वि य णं तेसि णाणाविहाणं चउप्पयथलचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं एगखुराणं जाव सणफयाणं सरीरा नाणावण्णा जावमक्खायं / ७३४-इसके पश्चात् श्री तीर्थंकरदेव ने अनेकजाति वाले स्थलचर चतुष्पद (चौपाये) तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय के सम्बन्ध में बताया है, जैसे कि-कई स्थलचर चौपाये पशु एक खुर वाले, कई दो खुर वाले, कई गण्डीपद (हाथी आदि) और कई (सिंह आदि) नखयुक्त पद वाले होते हैं / वे जीव अपने-अपने बीज और अवकाश के अनुसार उत्पन्न होते हैं। स्त्री-पुरुष (मादा और नर) का कर्मानुसार परस्पर सुरत-संयोग होने पर वे जीव चतुष्पद स्थलचरजाति के गर्भ में आते हैं। वे माता और पिता दोनों के स्नेह का पहले प्रहार करते हैं। उस गर्भ में वे जीव स्त्री, पुरुष या नपुंसक के रूप में होते हैं। वे जीव (गर्भ में) माता के प्रोज (रज) और पिता के शुक्र का आहार करते हैं। शेष सब बातें पूर्ववत् मनुष्य के समान समझ लेनी चाहिए / इनमें कोई स्त्री (मादा) के रूप में, कभी नर के रूप में और कोई नपुसक के रूप में उत्पन्न होते हैं / वे जीव बाल्यावस्था में माता के दूध और घृत का आहार करते हैं / क्रमशः बड़े होकर वे वनस्पतिकाय का तथा दूसरे त्रस-स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं। इसके अतिरिक्त वे प्राणी पृथ्वी आदि के शरीर का भी आहार करते हैं / फिर वे आहार किये हुए पदार्थों को पचा कर अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते हैं / उन अनेकविध जाति वाले स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यच्चयोनिक चतुष्पद जीवों के विविध वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आकार एवं रचना वाले दूसरे अनेक शरीर भी होते हैं, यह श्री तीर्थकरप्रभु ने कहा है। ७३५–प्रहावरं पुरक्खाय-नाणाविहाणं उरपरिसप्पथलचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं, तंजहा-अहीणं अयगराणं प्रासालियाणं महोरगाणं, तेसि च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिस० जाव एत्थ गं मेहुण० एतं चेव, नाणत्तं अंडं वेगता जणयंति, पोयं वेगता जणयंति, से अंडे उभिज्जमाणे इत्थि वेगता जणयंति पुरिसं पि नपुंसगं पि, ते जीवा डहरा समाणा वाउकायमाहारेति अणुपुत्वेणं वुड्ढा वणस्सतिकायं तस-थावरे य पाणे, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेवि य णं तेसि णाणाविहाणं उरपरिसप्पथलचरतिरिक्खचिदिय० अहोणं जाव महोरगाणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खातं / ७३५--इसके पश्चात् श्रीतीर्थकरदेव ने अनेक प्रकार की जाति वाले उरपरिसर्प (छाती के बल सरक कर चलने वाले), स्थलचर, पंचेन्द्रिय, तिर्यञ्चयोनिक जीवों का वर्णन किया है। जैसे कि सर्प, अजगर, प्राशालिक (सर्पविशेष) और महोरग (बड़े सांप) आदि उर:परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव हैं / वे जीव अपने-अपने उत्पत्तियोग्य बीज और अवकाश के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं। इन प्राणियों में भी स्त्री और पुरुष का परस्पर मैथुन नामक संयोग होता है, उस संयोग के होने पर कर्मप्रेरित प्राणी अपने-अपने कर्मानुसार अपनी-अपनी नियत योनि में उत्पन्न होते हैं। शेष बातें पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए। उनमें से कई अंडा देते हैं, कई बच्चा (पोत द्वारा) उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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