________________ 38] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध अन्नयरातो दुक्खातो रोगायंकातो पडिमोएह अणिद्वानो जाव णो सुहातो। एवामेव गो लद्धपुन्वं अवति। ६७२-(किन्तु उक्त शास्त्रज्ञ) बुद्धिमान साधक को स्वयं पहले से ही सम्यक प्रकार से जान लेना चाहिए कि इस लोक में मुझे किसी प्रकार का कोई दुःख या रोग-आतंक (जो कि मेरे लिए अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय यावत् दुःखदायक है) पैदा होने पर मैं अपने ज्ञातिजनों से प्रार्थना करू कि हे भय का अन्त करने वाले ज्ञातिजनों ! मेरे इस अनिष्ट, अप्रिय यावत् दुःखरूप या असुखरूप दुःख या रोगातंक को आप लोग बराबर बांट लें, ताकि मैं इस दुःख से दुःखित, चिन्तित, यावत् अतिसंतप्त न होऊं / आप सब मुझे इस अनिष्ट यावत् उत्पीड़क दुःख या रोगातंक से मुक्त करा (छुटकारा दिला) दें।" इस पर वे ज्ञातिजन मेरे दुःख और रोगातंक को बांट कर ले लें, या मुझे इस दुःख या रोगातंक से मुक्त करा दें, ऐसा कदापि नहीं होता। ६७३–तेसि वा वि भयंताराणं मम णाययाणं अण्णयरे दुक्खे रोगातंके समुष्पज्जेज्जा अणिो जाव नो सुहे, से हंता अहमेतेसि भयंताराणं णाययाणं इमं अण्णतरं दुक्खं रोगातक परियाइयामि अणिटुं जाव णो सुहं, मा मे दुक्खंतु वा जाव परितप्पंतु वा, इमानो णं अण्णतरातो दुक्खातो रोगातंकातो परिमोएमि अणिट्ठातो जाव नो सुहातो / एवामेव णो लद्धपुव्वं भवति / ६७३—अथवा भय से मेरी रक्षा करने वाले उन मेरे ज्ञातिजनों को ही कोई दुःख या रोग उत्पन्न हो जाए, जो अनिष्ट, अप्रिय यावत् असुखकर हो, तो मैं उन भयत्राता ज्ञातिजनों के अनिष्ट, अप्रिय यावत् असुखरूप उस दुःख या रोगातंक को बांट कर ले लू, ताकि वे मेरे ज्ञातिजन दुःख न पाएँ यावत् वे अतिसंतप्त न हों, तथा मैं उन ज्ञातिजनों को उनके किसी अनिष्ट यावत् असुखरूप दुःख या रोगातंक से मुक्त कर दूं, ऐसा भी कदापि नहीं होता। ६७४–अण्णस्स दुक्खं अण्णो नो परियाइयति, अन्नेण कडं कम्मं अन्नो नो पडिसंवेदेति, पत्तेयं जायति, पत्तेयं मरइ, पत्तेयं चयति, पत्तेयं उववज्जति, पत्तेयं झंझा, पत्तेयं सण्णा, पत्तेयं मण्णा, एवं विष्णू, वेदणा, इति खलु णातिसंयोगा णो ताणाए वा णो सरणाए वा, पुरिसो वा एगता पुष्वि जातिसंयोगे विप्पजहति, नातिसंयोगा वा एगता पुब्धि पुरिसं विप्पजहंति, अन्ने खलु णातिसंयोगा अन्नो अहमंसि, से किमंग पुण वयं अन्नमन्नेहि णातिसंयोगेहिं मुच्छामो ? इति संखाए णं वयं णातिसंयोगे विपजहिस्सामो। ६७४-(क्योंकि) दूसरे के दुःख को दूसरा व्यक्ति बांट कर नहीं ले सकता। दूसरे के द्वारा कृत कर्म का फल दूसरा नहीं भोग सकता / प्रत्येक प्राणी अकेला ही जन्मता है, आयुष्य क्षय होने पर अकेला ही मरता है, प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही (धन-धान्य-हिरण्य-सुवर्णादि परिग्रह, शब्दादि विषयों या माता-पितादि के संयोगों का) त्याग करता है, अकेला ही प्रत्येक व्यक्ति इन वस्तुओं का उपभोग या स्वीकार करता है, प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही झंझा (कलह) आदि कषायों को ग्रहण करता है, अकेला ही पदार्थों का परिज्ञान (संज्ञान) करता है, तथा प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही मनन-चिन्तन करता है, प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही विद्वान् होता है, (उसके बदले में दूसरा कोई विद्वान् नहीं बनता), प्रत्येक व्यक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org