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________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 155 से 157 169 अनुसार- 'अबक्षुदर्शन: केवलदर्शनः-सर्वज्ञः, तस्माद् यदाप्यते हितं तत् / ' अर्थात् अचक्षुदर्शन वाला-यानी केवलदर्शनी जो सर्वज्ञ है, उससे जो हित (हितकर वचन) प्राप्त होता है उस पर / अद्दक्खूदंसणा-असर्वज्ञ के दर्शन वालो ! वृत्तिकार ने अचक्खुदसणा' पाठान्तर मानकर उपर्युक्त अर्थ ही किया है। सुव्रती समन्वदशी-गृहस्थ देवलोक में 155. गारं पि य आवसे नरे, अणुपुव्वं पाणेहि संजए। समया सव्वत्थ सुव्बए, देवाणं गच्छे स लोगयं // 13 // 155. घर (गृहस्थ) में भी निवास करता हुआ मनुष्य क्रमशः प्राणियों पर (यथाशक्ति) संयम रखता है, तथा सर्वत्र (सब प्राणियों में) समता रखता है, तो वह (समत्वदर्शी) सुव्रती (श्रावकव्रती गृहस्थ) भी देवों के लोक में जाता है। विवेचन-सुबती समस्वदर्शी गृहस्थ भी देवलोकगामी-प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि गृहस्थी भी तीन गुणों से समन्वित होकर देवों के लोक में चला जाता है। वे तीन विशिष्ट गुण ये हैं-(१) वह गृहस्थ में रहता हुआ मर्यादानुसार प्राणिहिंसा पर संयम (नियन्त्रण) रखे, (2) आहेत्प्रवचनोक्त समस्त एकेन्द्रियादि प्राणियों पर समभाव-आत्मवद्भाव रखे, तथा (3) श्रावक के व्रत धारण करे / उत्तराध्ययनसूत्र में भी इसी तथ्य का समर्थन किया गया है कि सुव्रती भिक्षु हो या गृहस्थ, दिव्यलोक में जाता है।२४ कठिन शब्दों की व्याख्या---'समया सम्वत्थ सम्वए'-वत्तिकार के अनुसार-इस वाक्य के दो अर्थ हैं(१) समता यानी समभाव-स्व-पर तुल्यता सर्वत्र-साधु और गृहस्थ के प्रति रखता है, अथवा आर्हत्प्रवचनोक्त एकेन्द्रियादि समस्त प्राणियों पर समभाव रखता है, ऐसा सुना जाता है, कहा जाता है / चूर्णिकार के अनुसार-जो सर्वत्र समताभाव रखता है, वह गृहस्थ भले ही सामायिक आदि क्रियाएँ न करता हो, फिर भी समताभाव के कारण / देवाणं गच्छे स लोगयं-वह देवों (वैमानिकों) के लोक में जाता है। चूर्णिकार ‘स लोगयं' को 'सलोगतं' पाठ मानकर अर्थ करते हैं-'देवाणं गच्छे सलोगतं-समानलोगतं सलोगतं / अर्थात्-देवों का समान लोकत्व (स्थान या अवधिज्ञान दर्शन) पा जाता है अथवा देवों का श्लोकत्व= प्रशंसनीयत्व प्राप्त कर लेता है।५ गारं पि य आवसे नरे-आगर-गृह में निवास करता हुआ भी। मोक्षयात्री भिक्षु का आचरण 156. सोच्चा भगवाणुसासणं, सच्चे तत्थ करेहुवयकम। सम्वत्थऽवणीयमच्छरे, उंछ भिक्खु विसुद्धमाहरे // 14 // 23 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 73 4 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 74 (ख) तुलना 'भिक्खाए व गिहत्थे वा सुब्बए कम्मइ दिवं।' -उत्तराध्ययन अ० 5/22 25 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 74 (ख) 'सम्वत्थ समतां भावयति, तदनु चाकृतसामायिकः शोभनव्रतः सुव्रतः।' -सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ. 28 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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