________________ 168 सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वंतालीय मोह के दो प्रबल कारणों-लाया और पका से विरक्त रहे-यहाँ एक प्रश्न होता है कि साधु-जीवन अंगीकार करने के पश्चात् तो सम्यग्दर्शनादि का उत्कट आचरण होने लगता है, फिर वहाँ मोह का और दुःख का क्या काम है ? इसका समाधान इसी पंक्ति में गर्भित है कि साधु-साध्वी सांसारिक पदार्थों की मोह-ममता त्याग कर सम्यक् प्रकार से संयम के लिए उत्थित हुये हैं फिर भी जब तक साधक वीतराग नहीं हो जाता, तब तक उसे कई प्रकार से मोह घेर सकता है जैसे (1) शिष्य-शिष्याओं, (2) भक्त-भक्ताओं, (3) वस्त्र-पात्रादि उपकरणों, (4) क्षेत्र-स्थान, (5) शरीर, (6) प्रशंसा-प्रसिद्धि, (7) पूजा-प्रतिष्ठा आदि का मोह। इसीलिए आचारांग सूत्र में दुःखी 'मोहे पुणो-पुणो के बदले ‘एत्थ मोहे पुणो-पुणों' पाठ है, जिसका आशय है-इस साधू-जीवन में भी पूनः-पूनः मोह का ज्वार आता है / प्रस्तुत गाथा में विशेष मोहोत्पादक दो बातों से खासतोर से विरक्त होने की प्रेरणा दी गयी है--निविदेज्ज सिलोग-पूयणं- श्लोक का अर्थ है-आत्मश्लाघा, या स्तुति, प्रशंसा, यशकीर्ति, प्रसिद्धि या वाहवाही। और पूजा का अर्थ हैं-वस्त्रादि दान द्वारा सत्कार, अथवा प्रतिष्ठा, बहुमान, भक्ति आदि। साधु-जीवन में और बातों का मोह छूटना फिर भी आसान है, परन्तु अपनी प्रशंसा, प्रसिद्धि, पूजा-सम्मान और प्रतिष्ठा की लालसा छूटनी बहुत कठिन है, क्योंकि वह चुपके-चुपके साधक के मानस में घुसती हैं, और सम्प्रदाय, धर्म, कुल, तप, ज्ञान, अहंकार प्रभुत्व आदि कई रूपों में साधक का दिल-दिमाग भ्रान्त करती हुई आती हैं। इसीलिए शास्त्रकार यहाँ उसका समूलोच्छेदन करने के लिए कहते है--निठिंबदेज्ज' अर्थात् इन दोनों मोह जननियों से विरक्त हो जाओ। मन से भी इन्हें मत चाहो, न इनका चिन्तन करो। इनकी जरा-सी भी चाट लगी कि मोह मूढ़ बना बना साधक बात-बात में अपना अपमान, तिरस्कार, अपकीर्ति आदि मानकर दुःखी हो जायेगा।" सम्यग्दर्शन पुष्ट होता है- सर्वप्राणियों के आत्मवत् दर्शन से-१५४वीं सूत्रगाथा के उत्तरार्द्ध में समस्त प्राणियों को आत्मवत् दृष्टि से देखने की प्रेरणा है / संयमी साधु के लिए स्व-पर का भेदभाव, स्व-सुख की ममता, और पर-सुख की उपेक्षा, स्वजीवन का मोह, परजीवन की उपेक्षा आदि विषमभाव निकालकर दर कर देना चाहिए। इस विषमभाव को मिटाने का सबसे सरल तरीका है-साधक समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य दृष्टि से देखें / अपने सुख-दुःख, जीवन-मरण के समान ही उनके सुख-दुःखादि को जाने। इसीलिए कहा गया है- “एवं सहितेऽहिपासए..."संजते / " चूर्णिकार इसका अर्थ करते हैं-इस प्रकार संयमी साधु ज्ञानादि सम्पन्न होकर सभी प्राणियों को आत्मतुल्य से भी अधिक देखे / 22 'दक्खु बाहित' आदि पदों का अर्थ-दक्खुवाहितं =सर्वज्ञ-सर्वदर्शी द्वारा व्याहृत-कथित, वृत्तिकार के 21 (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० 387 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 73 (ग) आचारांग सूत्र श्र.०१ अ०२ उ०२ सू० 70 पृ० 46 में देखिए 'एत्य मोहे पुणो-पुणो सण्णा, णो हव्वाए, णो पाराए।' 22 (क) शीलांक वृत्ति (सू० कृ०) पत्रांक 73 का सारांश (ख) अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 387 का सारांश (ग) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ. 28 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org