________________ नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र 858 ] [ 203 आराधना करते हुए पाहार-पानी का सर्वथा प्रत्याख्यान (त्याग) करके दीर्घकाल तक जीने की या शीघ्र ही मरने की आकांक्षा न करते हुए विचरण करेंगे। उस समय हम तीन करण और तीन योग से समस्त प्राणातिपात, समस्त मुषावाद, समस्त अदत्तादान, समस्त मैथन और सर्वपरिग्रह का प्रत्याख्यान (त्याग) करेंगे / (कौटुम्बिकजनों से हम इस प्रकार कहेंगे-) हमारे लिए (पचन-पाचनादि) कुछ भी प्रारम्भ मत करना, और न ही कराना।' उस संल्लेखनाव्रत में हम अनुमोदन का भी प्रत्याख्यान करेंगे। इस प्रकार संल्लेखनाव्रत में स्थित साधक बिना खाए-पीए, बिना स्नानादि किये, पलंग आदि प्रासन से उतर कर सम्यक् प्रकार से संल्लेखना की आराधना करते हुए कालधर्म को प्राप्त हो जाएँ तो उनके मरण (काल) के विषय में क्या कहना होगा? यही कहना होगा कि उन्हें भावनाओं में मृत्यु पाई है। (मर कर वे देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होंगे, जो कि त्रस हैं) वे प्राणी भी कहलाते हैं, वे त्रस भी कहलाते हैं, वे महाकाय और चिरस्थिति वाले भी होते हैं, इन (सप्राणियों) की संख्या भी बहुत है, जिनकी हिंसा का प्रत्याख्यान श्रमणोपासक करता है, किन्तु वे प्राणो अल्पतर हैं, जिनकी हिंसा का प्रत्याख्यान वह नहीं करता है। ऐसी स्थिति में श्रमणोपासक महान् त्रसकायिक हिंसा से निवृत्त है, फिर भी आप उसके प्रत्याख्यान को निविषय बतलाते हैं। अतः आपका यह मन्तव्य न्यायसंगत नहीं है। ८५८-भगवं च णं उदाहु---संतेगतिया मणुस्सा भवंति महिच्छा महारंभा महापरिग्गहा अहम्मिया जाव दुप्पडियाणंदा जाव सव्वातो परिग्गहातो अप्पडिविरता जावज्जीवाए, जेहि समणोवासगस्स प्रादाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खिते; ते ततो पाउगं विप्पजहंति, ते चइत्ता भुज्जो सगमादाए दुग्गइगामिणो भवंति, ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि वच्चंति, ते महाकाया, ते चिरटुिइया, ते बहुतरगा पाणा जेहि समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवति, ते अप्पयरगा पाणा जेहि समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवति, प्रादाणसो इती से महताउ० जणं तुम्मे क्यह जाव अयं पि में देसे णो णेयाउए भवति / ___८५८-भगवान् श्री गौतमगणधर ने पुनः कहा-इस संसार में कई मनुष्य ऐसे होते हैं, जो बड़ी-बड़ी इच्छाओं (अपरिमित आकांक्षाओं) से युक्त होते हैं, तथा महारम्भी, महापरिग्रही एवं अधार्मिक होते हैं। यहाँ तक कि वे बड़ी कठिनता से प्रसन्न (सन्तुष्ट) किये जा सकते हैं। वे जीवनभर अधर्मानुसारी, अधर्मसेवी, अतिहिंसक, अधर्मनिष्ठ यावत् समस्त परिग्रहों से अनिवृत्त होते हैं। श्रमणोपासक ने इन (त्रस) प्राणियों को दण्ड देने का प्रत्याख्यान व्रतग्रहण के समय से लेकर मृत्युपर्यन्त किया है / वे (पूर्वोक्त) अधार्मिक मृत्यु का समय आने पर अपनी आयु (एवं शरीर) का त्याग कर देते हैं, और अपने पापकर्म अपने साथ (परलोक में) ले जा कर दुर्गतिगामी होते हैं। (वह दुर्गति नरक या तिर्यञ्च है। अत: वे अधामिक नरक या तिर्यञ्चगति में त्रसरूप में उत्पन्न होते हैं) वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं, तथा वे महाकाय और चिरस्थितिक (नरक में 33 सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति तक होने से) भी कहलाते हैं / ऐसे त्रसप्राणी संख्या में बहुत अधिक हैं, जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है, वे प्राणी अल्पतर हैं, जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान नहीं होता / उन (त्रस) प्राणियों को मारने का प्रत्याख्यान श्रमणोपासक व्रतग्रहण समय से लेकर मरण-पर्यन्त करता है। इस प्रकार से श्रमणोपासक उस महती त्रसप्राणिहिंसा से विरत हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org