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________________ 202 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध हैं-(निर्ग्रन्थ गुरुवर !) हम मुण्डित हो कर गृहवास का त्याग कर अनगारधर्म में प्रवजित होने में समर्थ नहीं हैं / हम तो चतुर्दशी, अष्टमी और पूर्णमासी के दिन परिपूर्ण पौषधव्रत का सम्यक अनुपालन (विधि के अनुसार पालन) करेंगे तथा हम स्थूल प्राणातिपात, स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान, स्थूलमैथुन, एवं स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान (त्याग) करेंगे। हम अपनी इच्छा का परिमाण करेंगे। हम ये प्रत्याख्यान दो करण (करूं नहीं, कराऊँ नहीं) एवं तीन योग (मन-वचन-काया) से करेंगे / (हम जब पौषधव्रत में होंगे, तब अपने कौटुम्बिकजनों से पहले से कहेंगे-) 'मेरे लिए कुछ भी (पचन-पाचन, स्नान, तेलमर्दन, विलेपन आदि प्रारम्भ) न करना और न ही कराना" तथा उस पौषध में (सर्वथा दुष्कर) अनमति का भी प्रत्याख्यान करेंगे। पौषधस्थित वे श्रमणोपासक बिना खाए (आहारत्याग पौषध) तथा बिना स्नान किये (शरीरसत्कारत्याग पौषध) एवं आरामकुर्सी, पलंग, या पीठिका आदि से उतर कर (ब्रह्मचर्य-पौषध या व्यापारत्याग-पौषध कर के दर्भ के संस्तारक पर स्थित) (ऐसी स्थिति में सम्यक् प्रकार से पौषध का पालन करते हुए) यदि मृत्यु को प्राप्त हो जाएँ तो उनके मरण के विषय में क्या कहना होगा ? यही कहना होगा कि वे अच्छी तरह से कालधर्म को प्राप्त हुए / देवलोक में उत्पत्ति होने से वे त्रस ही होते हैं। वे (प्राणधारण करने के कारण) प्राणी भी कहलाते हैं, वे (त्रसनामकर्म का उदय होने से) त्रस भी कहलाते हैं, (एक लाख योजन तक के शरीर की विक्रिया कर सकने के कारण) वे महाकाय भी होते हैं तथा (तैतीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति होने से) वे चिरस्थितिक भी होते हैं / वे प्राणी संख्या में बहुत अधिक हैं, जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है। वे प्राणी थोड़े हैं, जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान नहीं होता / इस प्रकार वह श्रमणोपासक महान् त्रसकायिकहिंसा से निवृत्त है। फिर भी आप उसके प्रत्याख्यान को निर्विषय कहते हैं / अतः आपका यह दर्शन (मन्तव्य) न्यायसंगत नहीं है। ८५७–भगवं च णं उदाहु-संतेगतिया समणोवासगा भवंति, तेसि च णं एवं वृत्तपुव्वं भवति, णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगारापो जाव पव्वइत्तए,' णो खलु वयं संचाएमो चाउद्दसट्टमुद्दिपुण्णमासिणीसु जाव अणुपालेमाणा विहरित्तए, वयं णं अपच्छिममारणंतियसलेहणाझूस. णाझसिया मत्तपाणपडियाइविखया कालं प्रणवकंखमाणा विहरिस्सामो, सव्वं पाणातिवायं पच्चाइविखस्सामो जाव सव्वं परिग्गहं पच्चाइविखस्सामो तिविहं तिविहेणं, मा खलु मम अढाए किंचि वि जाव प्रासंदिपेढियानो पच्चोरुहिता ते तहा कालगया कि वत्तव्वं सिया ? समणा कालगता इति बत्तव्वं सिया। ते पाणा वि वुच्चंति जाव अयं पि मे देसे नो नेयाउए भवति / ८५७-(फिर) भगवान् गौतम स्वामी ने (उदक निम्रन्थ से) कहा-कई श्रमणोपासक ऐसे भी होते हैं, जो पहले से इस प्रकार कहते हैं कि हम मुण्डित हो कर गृहस्थावास को छोड़ कर अनगार धर्म में प्रवजित होने में अभी समर्थ नहीं हैं, और न ही हम चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूणिमा, इन पर्वतिथियों में प्रतिपूर्ण पौषधव्रत का पालन करने में समर्थ हैं / हम तो अन्तिम समय में (मृत्यु का समय आने पर) अपश्चिम-मारणान्तिक संलेखना-संथारा के सेवन से कर्मक्षय करने की 1. यहाँ इतना अधिक पाठ और पाठान्तर चूणि में है—“णो खलु वयं अणुव्वताइ मूलगुणे अणुपालेत्तए, णो खलु उत्तरगुणे. चाउद्दसटमीसू पोसधं अण. वयण्णं सम्महसणसारा अपच्छिममारणंतिय...श्रणवकखेमाणा....।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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