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________________ इस एक ही गाथा में सूत्रकृत का संपूर्ण तत्वचिन्तन समाविष्ट हो गया है। दर्शन और धर्म, विचार और आचार यहाँ अपनी सम्पूर्ण सचेतनता और सम्पूर्ण क्रियाशीलता के साथ एकासनासीन हो गये हैं। दर्शनशास्त्र का लक्ष्य है---जीव और जगत के विषय में विचार एवं विवेचना करना। भारतीय दर्शनों का; चाहे वे वैदिक दर्शन (सांख्य-योग, वैशेषिक-न्याय, मीमांसा और वेदान्त) हैं या अवैदिक दर्शन (जैन, बौद्ध, चार्वाक्) है, मुख्य आधार तीन तत्व हैं 1. प्रात्म-स्वरूप की विचारणा 2. ईश्वर सत्ता विषयक धारणा 3. लोक-सत्ता (जगत स्वरूप) की विचारणा जब प्रात्म-स्वरूप की विचारणा होती है तो प्रात्मा के दुःख-सुख, बन्धन-मुक्ति की विचारणा अवश्य होती है / प्रात्मा स्वतन्त्र है या परतन्त्र ? परतन्त्र है तो क्यों ? किसके अधीन ? कर्म या ईश्वर ? प्रात्मा जहाँ, जिस लोक में है उस लोक-सत्ता का संचालन/नियमन व्यवस्था कैसे चलती है ? इस प्रकार प्रात्मा (जीव) और लोक (जगत) के साथ ईश्वरसत्ता पर भी स्वयं विचार-चर्चा केन्द्रित हो जाती है और इन तत्वों की चिन्तना/चर्चा करना ही दर्शनशास्त्र का प्रयोजन है। धर्म का क्षेत्र--दर्शन शास्त्र द्वारा विवेचित तत्त्वों पर आचरण करना है। आत्मा दुःख-सुख, बन्धनमुक्ति के कारणों की खोज दर्शन करता है, पर उन कारणों पर विचार कर दुःख-मुक्ति और सुख-प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना धर्मक्षेत्र का कार्य है। प्रात्मा के बन्धन कारक तत्वों पर विवेचन करना दर्शनशास्त्र की सीमा में है और फिर उन बन्धनों से मुक्ति के लिए प्रयत्नशील होना धर्म की सीमा में आ जाता है। अब मैं कहना चाहूँगा कि मुत्रकृत् की सबसे पहली गाथा, आदि वचन, जिसमें आगमकार अपने समग्र प्रतिपाद्य का नवनीत प्रस्तुत कर रहे हैं-दर्शन और धर्म का संगम-स्थल है। वन्धन के कारणों की समग्र परिचर्चा के बाद या इसी के साथ-साथ बन्धन-मुक्ति की प्रक्रिया, पद्धति और साधना पर विशद चिन्तन प्रस्तुत करने का संकल्प पहले ही पद में व्यक्त हो गया है। अतः कहा जा सकता है कि मूत्रकृत् का सम्पूर्ण कलेवर अर्थात लगभग 36 हजार पद परिमाण विस्तार, पहली गाथा का ही महाभाष्य है। इस दृष्टि से मैं कहना चाहूँगा कि सूत्रकृत् न केवल-जैन तत्वदर्शन का सूचक शास्त्र है, बल्कि प्रात्मा की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने वाला मोक्ष-शास्त्र है। आस्तिक या आत्मवादी दर्शनों के चरम बिन्दु-मोक्ष निर्वाण/परम पद का स्वरूप एवं सिद्धि का उपाय बताने वाला आगम है-सूत्रकृत् / सूत्रकृत के सम्बन्ध में अधिक विस्तारपूर्वक पं० श्रीविजय मुनिजी म. ने प्रस्तावना में लिखा है, अतः यहाँ अधिक नहीं कहना चाहता, किन्तु सूचना मात्र के लिए यह कहना चाहता हूँ कि इसके प्रथम 'समय' अध्ययन, बारहवें 'समवसरण'; द्वितीय श्रुतस्कन्ध के द्वितीय अध्ययन 'पुण्डरीक' में अन्य मतों, दर्शन एवं उनकी मान्यताओं की स्फुट चर्चा है, उनकी युक्तिरहित अयथार्थ मान्यताओं की सूचना तथा निरसन भी इसी हेतु से किया गया है कि वे मिथ्या व अयथार्थ धारणाएँ भी मन व मस्तिष्क का वन्धन हैं। अज्ञान बहुत बड़ा बन्धन है। मिथ्यात्व की बेड़ी सबसे भयानक है, अत: उसे समझना और फिर तोड़ना तभी संभव है जब उसका यथार्थ परिज्ञान हो / साधक को सत्य का यथार्थ परिवोध देने हेतु ही शास्त्रकार ने बिना किसी धर्म-गुरु या मतप्रवर्तक का नाम लिए सिर्फ उनके मिद्धान्तों की युक्ति-रहितता बताने का प्रयास किया है। [10] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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