________________ सूत्रकृत म वणित पर-सिद्धान्त अाज भी दीघनिकाय, सामञ्जफलसूत्त, सूत्तनिपात, मज्झिमनिकाय, संयुक्त निकाय, महाभारत तथा अनेक उपनिपदों में विकीर्ण रूप से विद्यमान हैं, जिससे 2500 वर्ष पूर्व की उस दार्शनिक चर्चा का पता चलता है। यद्यपि 2500 वर्ष के दीर्घ अन्तराल में भारतीय दर्शनों की विचारधारागों में, सिद्धान्तों में भी कालक्रमानुसारी परिवर्तन व कई मोड़ पाये हैं, आजीवक जैसे व्यापक सम्प्रदाय तो लुप्त भी हो गये हैं, फिर भी आत्म-ग्रकर्तृत्ववादी सांख्य, कर्मचयवादी बौद्ध, पंच महाभूतवादी-चार्वाक (नास्तिक) श्रादि दर्शनों की सत्ता आज भी है। सुखवाद एवं अज्ञानवाद के वीज पाश्चात्य दर्शन में महासुखवाद, अजेयवाद एवं संशयवाद के रूप में आज परिलक्षित होते हैं। इन दर्शनों की प्राज प्रासंगिकता कितनी है यह एक अलग चर्चा का विषय हो सकता है, पर मिथ्याधारणाओं के बन्धन से मुक्त होने का लक्ष्य तो सर्वत्र सर्वदा प्रासंगिक रहा है, आज के युग में भी चिन्तन की सर्वांगता और सत्यानुगामिता, साथ ही पूर्वग्रह मुक्तता नितान्त प्रापेक्षिक है / सूत्रकृत का लक्ष्य भी मुक्ति तथा साधना की सम्यक्-पद्धति है। इसलिए इसका अनुशीलन-परिशीलन आज भी उतना ही उपयोगी तथा प्रासंगिक है / सूत्रकृत का प्रथम श्र तस्कंध पद्यमय है, (१५वाँ अध्ययन भी गद्य-गीति समुद्र छन्द में है) इसको गाथाएं वहुत सारपूर्ण सुभाषित जैसी हैं / कहीं-कहीं तो एक गाथा के चार पद, चारों ही चार सुभाषित जैसे लगते हैं / गाथायों की शब्दावली बड़ी सशक्त, अर्थपूर्ण तथा श्रति-मधुर है। कुछ सुभाषित तो ऐसे लगते हैं मानों गागर में सागर ही भर दिया है। जैसे: मा पच्छा असाहुया भवे - सूत्रांक 149 तवेसु वा उत्तमबंभचेरं आहंसु विज्जा-चरणं पमोक्खो 545 जे छेए विप्पमायं न कुज्जा 580 अकम्मुणा कम्म खति धीरा अगर स्वाध्यायी साधक इन श्रु त बाक्यों को कण्ठस्थ कर इन पर चिन्तन-मनन-आचरण करता रहे तो जीवन में एक नया प्रकाश, नया विकास और नया विश्वास स्वत: आने लगेगा। प्रस्तुत आगम में पर-दर्शनों के लिए कहीं-कहीं 'मंदा, मूढा “तमानो ते तमं जंति" जैसी कठोर प्रतीत होने बाली शब्दावली का प्रयोग कुछ जिज्ञासुनों को खटकता है। पार्ष-वाणी में रूक्ष या प्राक्षेपात्मक प्रयोग नहीं होने चाहिए ऐसा उनका मन्तव्य है, पर वास्तविकता में जाने पर यह आक्षेप उचित नहीं लगता / किसी व्यक्ति-विशेष के प्रति नहीं है, किन्तु उन मूढ़ या अहितकर धारणाओं के प्रति है, जिनके चक्कर में फसकर प्राणी सत्य-श्रद्धा व सत्य-प्राचार से पतित हो सकता है। असत्य की भत्र्सना और असत्य के कट-परिणान को जताने के लिए शास्त्रकार बड़ी दृढ़ता के साथ साधक को चेताते हैं / ज्वरात के लिए कटु औषधि के समान कटु प्रतीत होने वाले शब्द कहीं-कहीं अनिवार्य भी होते है। फिर आज के सभ्य युग में जिन शब्दों को कटु माना जाता है, वे शब्द उस युग में ग्राम भाषा में सहजतया प्रयुक्त होते थे ऐसा भी लगता है, अत: उन शब्दों की संयोजना के प्रति शास्त्रकार की सहज-सत्य-निष्ठा के अतिरिक्त अन्यथा कुछ नहीं हैं। 374 सुत्रकृत में दर्शन के साथ जीवन-व्यवहार का उच्च प्रादर्श भी प्रस्तुत हुया है। कपट, अहंकार, जातिमद, ज्ञानमद आदि पर भी कठोर प्रहार किये गये हैं / और सरल-सात्विक जीवन-दृष्टि को विकसित करने की प्रेरणाएँ दी हैं / कुल मिलाकर इसे गृहस्थ और श्रमण के लिए मुक्ति का मार्गदर्शक शास्त्र कहा जा सकता है। [11] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org