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________________ 140 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्र तस्कन्ध संज्ञी-असंज्ञो अप्रत्याख्यानी : सदैव पापकर्मरत ७५०--णो इण? सम?--चोदगो / इह खलु बहवे पाणा जे इमेणं सरीरसमुस्सएणं णो दिट्ठा वा नो सुया वा नाभिमता वा विण्णाया वा जेसि णो पत्तेयं पत्तेयं चित्त समादाए दिया वा रातो वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूते मिच्छासंठिते निच्च पसढविप्रोवातचित्तदंडे, तं०-पाणातिवाए जाव मिच्छादसणसल्ले। ७५०-प्रेरक (प्रश्नकर्ता) ने (इस सम्बन्ध में) एक प्रतिप्रश्न उठाया-(आपकी) पूर्वोक्त बात मान्य नहीं हो सकती। इस जगत् में बहुत-से ऐसे प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व हैं, (जो इतने सूक्ष्म और दूर हैं कि हम जैसे अर्वाग्दी पुरुषों ने) उनके शरीर के प्रमाण को न कभी देखा है, न ही सुना है, वे प्राणी न तो अपने अभिमत (इष्ट) हैं, और न वे ज्ञात हैं। इस कारण ऐसे समस्त प्राणियों में से प्रत्येक प्राणी के प्रति हिंसामय चित्त रखते हुए दिन-रात, सोते या जागते उनका अभित्र (शत्रु बना रहना, तथा उनके साथ मिथ्या व्यवहार करने में संलग्न रहना, एवं सदा उनके प्रति शठतापूर्ण हिंसामय चित्त रखना, सम्भव नहीं है, इसी तरह प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के पापों (पापस्थानों) में ऐसे प्राणियों का लिप्त रहना भी सम्भव नहीं है। ७५१-प्राचार्य प्राह तत्थ खलु भगवता दुवे दिढता पण्णत्ता, तं जहा-सन्निविट्ठ ते य असण्णिदिट्टते य / [1] से कि तं सणिदिढते ? सणिदिढते जे इमे सणिपंचिदिया पज्जत्तगा एतेसि णं छज्जीवनिकाए पडुच्च तं०-पुढविकायं जाव तसकायं, से एगतिलो पुढविकाएण किच्चं करेति वि कारवेति वि, तस्स णं एवं भवति–एवं खलु अहं पुढविकाएणं किच्चं करेमि वि कारवेमि वि, णो चेव णं से एवं भवति इमेण वा इमेण वा, से य तेणं पुढविकाएणं किच्चं करेइ वा कारवेइ वा, से य तामो पुढविकायातो असंजयअविरयापडिहयपच्चक्खायपावकम्मे यावि भवति, एवं जाव तसकायातो त्ति भाणियव्वं, से एगतिम्रो छहि जीवनिकाएहिं किच्चं करेति वि कारवेति वि, तस्स णं एवं भवति-एवं खलु हि जीवनिकाएहि किच्चं करेमि वि कारवेमि वि, णो चेव णं से एवं भवति--इमेहि वा इमेहि वा, से य तेहिं छहिं जीवनिकाएहिं जाव कारवेति वि, से य तेहिं छहिं जोवनिकाएहि असंजय अविरयअपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे, तं०-पाणातिवाते जाव मिच्छादसणसल्ले, एस खलु भगवता अक्खाते प्रसंजते अविरते अपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे सुविणमवि अपस्सतो पावे य कम्मे से कज्जति / से तं सण्णिदिढतेणं। (2) से किं तं असण्णिदिढ़ते ? असणिदिढते जे इमे असण्णिणो पाणा, तं०-पुढविकाइया जाव वणस्सतिकाइया छट्ठा वेगतिया तसा पाणा, जेसि णो तक्का ति वा सण्णा ति वा पण्णा इ वा मणो ति वा वई ति वा सयं वा करणाए अण्णेहि वा कारवेत्तए करेंतं वा समणुजाणित्तए ते वि णं बाला सन्वेसि पाणाणं जाव सम्वेसि सत्ताणं दिया वा रातो बा सुते वा जागरमाणे वा अमित्तभूता मिच्छासंठिता निच्चं पसढविमोबातचित्तदंडा, तं०--पाणातिवाते जाव मिच्छादसणसल्ले, इच्चे जाण, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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