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________________ गाथा 512 से 517 दान करने से लाभ मिलने वाले प्राणियों का वृत्तिच्छेद-आजीविका-भंग है / वृत्तिच्छेद करना भी एक प्रकार की हिंसा है। प्रश्न होता है- एक ओर शास्त्रकार उन दानादि शुभकार्यों की प्रशंसा करने या उनमें पुण्य बताने का निषेध करते हैं, दसरी ओर वे उन्हीं शभकार्यों का निषेध करने या पुण्य न बताने का भी निषेध करते हैं; ऐसा क्यों ? क्या इस सम्बन्ध में साधु को 'हाँ' या 'ना' कुछ भी नहीं कहना चाहिए ? वृत्तिकार इस विषय में स्पष्टीकरण करते हैं कि इस सम्बन्ध में किसी के पूछने पर मौन धारण कर लेना चाहिए, यदि कोई अधिक आग्रह करे तो साधु को कहना चाहिए कि हम लोगों के लिए 42 दोष वजित आहार लेना कल्पनीय है. अतः ऐसे विषय में कुछ कहने का मुमुक्ष साधुओं का अधिकार नहीं है / किन्तु शास्त्रकार ने सूत्रगाथा 517 के उत्तरार्द्ध में स्वयं एक विवेक सूत्र प्रस्तुत किया है-'आयं रयस्स हेच्चा पाउणंति / " इसका रहस्यार्थ यह है कि जिस शुभकार्य में हिंसा होती हो या होने वाली हो, उसकी प्रशंसा करने या उसे पुण्य कहने से हिसा का अनुमोदन होता है, तथा हिंसाजनित होते हुए भी जिस शुभकार्य का लाभ दूसरों को मिलता हो, उसका निषेध करने या उसमें पाप बताने से वृत्तिच्छेद रूप लाभान्तराय कर्म का बन्ध होता है / इस प्रकार दोनों ओर से होने वाले कर्मबन्धन को मौन से या निरवद्य भाषण से टालना चाहिए। इससे यह फलितार्थ निकलता है कि जिस दानादि शुभकार्य के पीछे कोई हिंसा नहीं होने वाली है, अथवा नहीं हो रही है, एसी अचित्त प्रासुक आरम्भरहित वस्तु का कोई दान करना चाहे अथवा कर रहा हो, और साधु से उ सम्बन्ध में कोई पूछे तो उसमें उसके शुभपरिणामों (भावों) की दृष्टि से साध 'पुण्य' कह सकता है और अनुकम्पा बुद्धि से दिये जाने वाले दान का निषेध तो उसे कदापि नहीं करना है, क्योंकि शास्त्र में अनुकम्पा दान का निषेध नहीं हैं। भगवती सूत्र की टीका में भी स्पष्ट कहा है कि "जिनेश्वरों ने अनुकम्पा दान का तो कदापि निषेध नहीं किया है / " ऐसे निरवध भाषण द्वारा साधु कर्मागमन को भी रोक सकता है और उचित मार्ग-दर्शन भी कर सकता है। यही भाषा-विवेक सम्बन्धी इन गाथाओं का रहस्य है।" पाठान्तर और व्याख्या--"अस्थि वा णस्थि वा धम्मो अत्थि धम्मो त्ति णो वदे' के स्थान पर वृत्तिकार सम्मत पाठान्तर है--"हणत गाणु जाणेज्जा आयगुत्त जिइदिए" इसकी व्याख्या वृत्तिकार करते हैं-कोई धर्मश्रद्धालु धर्मबुद्धि से कुआ खुदाने, जलशाला या अन्नसत्र बनाने की परोपकारिणी, किन्तु प्राणियों की उपमर्दन 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 201 से 203 तक का सारांश (स) ....... पृष्टः सदभिमौंन समाश्रयणीयम् निर्वन्ध त्वस्माकं द्विचत्वारिंशद्दोषजित आहारः कल्पते, एवं विधे विषये मुमुक्षुणामधिकार एव नास्तीति / / " -सूत्र 30 शी० वृत्ति पत्रांक 202 (1) ...तमायं रजसो मौनेनाऽनवद्यभाषणेन वा हित्वा-त्यक्त्वा ते अनवद्यभाषिणो निर्वाण."प्राप्नवन्ति / " -सूत्र कृ० शी० वृत्ति पत्रांक 203 7 (क) सद्धर्ममण्डनम् (द्वितीय संस्करण) पृ० 63 से 18 तक का निष्कर्ष (ख) 'अणुकंपादा पुण जिणेहि न क्याड पडिसिद्ध' -भगवती सूत्र श० 8 उ० 6, सू० 331 की टीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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