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________________ 162 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध का प्रतिलाभ (प्राप्ति) अमुक से होता है, अमुक से नहीं होता, अथवा तुम्हें आज भिक्षालाभ होगा या नहीं ? किन्तु जिससे शान्ति (मोक्षमार्ग) की वृद्धि होती हो, ऐसा वचन कहना चाहिए। विवेचन-कतिपय निषेधात्मक प्राचारसूत्र-प्रस्तुत चार सूत्रगाथाओं में साधुओं के लिए भाषासमिति, सत्यमहाव्रत, अहिंसा अनेकान्त आदि की दृष्टि से विभिन्न पहलुओं से कतिपय निषे. धात्मक आचारसूत्र प्रस्तुत किये गए हैं / वे इस प्रकार हैं (1) किसी भी व्यक्ति को एकान्त पुण्यवान् (कल्याणवान्) अथवा एकान्त पापी नहीं कहना चाहिए। (2) जगत् के सभी पदार्थ एकान्त नित्य हैं, या एकान्त अनित्य हैं, ऐसी एकान्त प्ररूपणा नहीं करनी चाहिए। (3) सारा जगत् एकान्तरूप से दुःखमय है, ऐसा नहीं कहना चाहिए / (4) अमुक प्राणी वध्य (हनन करने योग्य) है, अमुक अवध्य है, ऐसा वचन मुह से न निकाले। (5) संसार में साधुतापूर्वक जीने वाले, प्राचारवान् भिक्षाजीवी साधु (प्रत्यक्ष) दीखते हैं, फिर भी ऐसी दृष्टि न रखे (या मिथ्याधारणा न बना ले) कि ये साधु कपटपूर्वक जीवन जीते हैं। (6) साधुमर्यादा में स्थित साधु को ऐसी भविष्यवाणी नहीं करनी चाहिए कि तुम्हें अमुक के यहाँ से दान मिलेगा, अथवा आज तुम्हें भिक्षा प्राप्त होगी या नहीं ? वह मोक्षमार्ग का कथन करे। ___ इनकी अनाचरणीयता का रहस्य-किसी को एकान्ततः पुण्यवान् (या कल्याणवान्) कह देने से उसके प्रति लोग आकर्षित होंगे, सम्भव है, वह इसका दुर्लाभ उठाए / एकान्तपापी कहने से वैर बन्ध जाने की सम्भावना है। जगत् के सभी पदार्थ पर्यायतः परिवर्तनशील हैं, कोई भी वस्तु सदा एक-सी अवस्था में नहीं रहती इसलिए अनेकान्तदृष्टि से पदार्थ को एकान्त नित्य कहने से उसकी विभिन्न अवस्थाएँ नहीं बन सकती, एकान्तनित्य (बौद्धों की तरह) कहने से कृतनाश और अकृतप्राप्ति आदि दोष होते हैं। सारा जगत एकान्तदःखमय है. ऐसा कह देना भी ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा ना कहने से अहिंसादि या रत्नत्रय की साधना करने का उत्साह नहीं रहता, तथा सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय-प्राप्ति से साधक को असीम सुख का अनुभव होता है, इसलिए सत्यमहाव्रत में दोष लगता है। अहिंसाधर्मी साधु हत्यारे, परस्त्रीगामी, चोर, डाकू या उपद्रवी को देखकर यदि यह कहता है कि इन्हें मार डालना चाहिए तो उसका अहिंसा महाव्रत भंग हो जाएगा। यदि सरकार किसी भयंकर अपराधी को भयंकर दण्ड–मृत्युदण्ड (कानून की दृष्टि से) दे रही हो तो उस समय साधु बीच में पंचायती न करे कि इन्हें मारो-पीटो मत, इन्हें दण्ड न दो। यदि वह ऐसा कहता है, तो राज्य या जनता के कोप का भोजन बन सकता है, अथवा ऐसे दण्डनीय व्यक्ति को साधु निरपराध कहता है तो साधु को उसके पापकार्य का अनुमोदन लगता है। अतः साधु ऐसे समय में समभावपूर्वक मध्यस्थ वृत्ति से रहे / अन्यथा, भाषासमिति, अहिंसा, सत्य आदि भंग होने की सम्भावना है। किसी सुसाधु के विषय में गलतफहमी या पूर्वाग्रह से मिथ्याधारणा बना लेने पर (कि यह कपटजीवी है, अनाचारी है, साधुता से दूर है आदि) द्वेष, वैर बढ़ता है, पापकर्मबन्ध होता है, सत्यमहाव्रत में दोष लगता है। इसी प्रकार स्वतीथिक या परतीथिक साधु के द्वारा दान या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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