________________ गाथा 558 से 567 416 556. वे स्वमताग्रहग्रस्त कुसाधु (जामालि गोष्ठामाहिल आदि निन्हववत्) विविध प्रकार से त (कुमार्ग-प्ररूपणा से निवारित) इस सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप मोक्षमार्ग (जिनमार्ग) की आचार्य परम्परागत व्याख्या से विपरीत प्ररूपणा करते हैं। जो व्यक्ति अहंकार वश आत्मभाव से (अपनी रुचि या कल्पना से) आचार्य परम्परा के विपरीत सूत्रों का अर्थ करते हैं, वे बहुत से ज्ञानादि सद्गुणों के स्थान (भाजन) नहीं होते / वे (अल्पज्ञान गवित होकर) वीतराग के ज्ञान में शंका करके मिथ्या भाषण करते हैं। 560. जो कुसाधु पूछने पर अपने आचार्य या गुरु आदि का माम छिपाते हैं, वे आदान रूप अर्थ (ज्ञानादि अथवा मोक्षरूप पदार्थ) से अपने आप को वञ्चित करते हैं / वे वस्तुतः इस जगत् में या धार्मिक जगत् में असाधु होते हुए भी स्वयं को साधु मानते हैं, अतः मायायुक्त वे व्यक्ति अनन्त (बहुत) बार विनाश (या संसारचक्र) को प्राप्त करेंगे। 561. जो कषाय-फल से अनभिज्ञ कुसाधु, प्रकृति से क्रोधी है, अविचारपूर्वक बोलता (परदोषभाषी) है, जो उपशान्त हुए कलह को फिर उभाड़ता (जगाता) रहता है, वह पापकर्मी एवं सदैव कलह ग्रस्त व्यक्ति (चातुर्गतिक संसार में यातनास्थान पाकर) बार-बार उसी तरह पीड़ित होता है, जिस तरह छोटी संकडी पगडंडी पकड़ कर चलने वाला (सुमार्ग से अनभिज्ञ) अंधा (कांटों, हिंस्र पशुओं आदि से) पीड़ित होता है। 562. जो साधक कलहकारी है, अन्याययुक्त (न्याय-विरुद्ध) बोलता है, वह (रागद्वेषयुक्त होने के कारण) सम-मध्यस्थ नहीं हो सकता, वह कलहरहित भी नहीं होता (अथवा वह अकलह प्राप्त सम्यग्दृष्टि के समान नहीं हो सकता)। परन्तु सुसाधु उपपातकारी (गुरुसान्निध्य में रहकर उनके निर्देशानुसार चलने वाला) या उपायकारी (सूत्रोपदेशानुसार उपाय-प्रवृत्ति करने वाला) होता है, वह अनाचार सेवन करते गुरु आदि से लज्जित होता है, जीवादि तत्वों में उसकी दृष्टि (श्रद्धा) स्पष्ट या निश्चित होती है तथा वह माया-रहित व्यवहार करता है। 563. भूल होने पर आचार्य आदि के द्वारा अनेक बार अनुशासित होकर (शिक्षा पाकर) भी जो अपनी लेश्या (अर्चा-चित्तवृत्ति) शुद्ध रखता है, वह सुसाधक मृदुभाषी या विनयादिगुणयुक्त है / वही सूक्ष्मार्थदर्शी है, वही वास्तव में संयम में पुरुषार्थी है, तथा वही उत्तम जाति से समन्वित और साध्वाचार में ही सहज-सरल-भाव से प्रवृत्त रहता है। वही सम (निन्दा-प्रशंसा में रोष-तोष रहित मध्यस्थ) है, और अकषाय-प्राप्त (अक्रोधी या अमायी) है (अथवा वही सुसाधक वीतराग पुरुषों के समान अझंझा प्राप्त है)। 564-565. जो अपने आपको संयम एवं ज्ञान का धनी मानकर अपनी परीक्षा किये बिना ही किसी के साथ वाद छेड़ देता है, अथवा अपनी प्रशंसा करता हैं, तथा मैं महान् तपस्वी हूँ; इस प्रकार के मद से मत्त होकर दूसरे व्यक्ति को जल में पड़े हुए चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब की तरह निरर्थक तुच्छ देखता-समझता है। वह मदलिप्त साधु एकान्तरूप से मोहरूपी कूटपाश में फंस कर संसार में परिभ्रमण करता हैं, तथा जो सम्मान प्राप्ति के लिए संयम, तपस्या, ज्ञान आदि विविध प्रकार का मद करता है, वह समस्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org