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________________ नालन्दकीय ; सप्तम अध्ययन : सूत्र 852] [195 में) वे सबके सब स्थावरकाय को छोड़ कर त्रसकाय में उत्पन्न हो जाते हैं, और कभी त्रसकाय को छोड़ कर स्थावरकाय में उत्पन्न होते हैं / अतः स्थावरकाय में उत्पन्न हुए सभी जीव उन (वसकायजीववध-त्यागी) श्रावकों के लिए घात के योग्य हो जाते हैं। ८५२-सवायं भगवं गोयमे उदगं पेढालपुत्तं एवं वदासी–णो खलु पाउसो! अस्माकं वत्तवएणं, तुभं चेव अणुष्पवादेणं अस्थि णं से परियाए जमि समणोवासगस्स सब्वपाणेहि सव्वभूहि सव्वजोवेहि सव्वसत्तेहि दंडे निक्खित्ते, कस्स णं तं हेतुं ? संसारिया खलु पाणा, तसा वि पाणा थावरत्ताए पच्चायंति, थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायंति, तसकायातो विप्पमुच्चमाणा सच्चे थावरकायंसि उववज्जंति, थावरकायानो विष्पमुच्चमाणा सव्वे तसकासि उववज्जंति, तेसि च णं तसकायंसि उववन्नाणं ठाणमेयं अघतं, ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि बुच्चंति, ते महाकाया, ते चिरट्टिइया, ते बहुतरगा पाणा जेहि समणोवासगरस सुपच्चक्खायं भवति, ते अप्पतरागा पाणा जेहि समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवति, इति से महया तसकायानो उवसंतस्स उवट्ठियस्स पडिविरयस्स जण्णं तुब्भे वा अन्नो वा एवं वदह--णस्थि णं से केइ परियाए जम्मि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते, अयं पि भे देसे णो णेयाउए भवति / ८५२-(इस पर) भगवान् गौतम ने उदक पेढालपुत्र से युक्तिपूर्वक (सवाद) इस प्रकार कहाआयुष्मन् उदक ! हमारे वक्तव्य (मन्तव्य) के अनुसार तो यह प्रश्न ही नहीं उठता (क्योंकि हमारा मन्तव्य यह है कि सबके सब बस एक ही काल में स्थावर हो जाते हैं, ऐसा न कभी हुआ है, न होगा और न है / ) आपके वक्तव्य (अनुप्रवाद) के अनुसार (यह प्रश्न उठ सकता है, परन्तु आपके सिद्धान्तानुसार थोड़ी देर के लिए मान लें कि सभी स्थावर एक ही काल में त्रस हो जाएँगे तब) भी वह (एक) पर्याय (त्रसरूप) अवश्य है, जिसके रहते (त्रसघातत्यागी) श्रमणोपासक सभी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों के घात (दण्ड देने) का त्याग सफल होता है / इसका कारण क्या है ? (सुनिये,) प्राणिगण परिवर्तनशील हैं, इसलिए त्रस प्राणी जैसे स्थावर के रूप उत्पन्न हो जाते हैं, वैसे ही स्थावर प्राणी भी त्रस के रूप उत्पन्न हो जाते हैं / अर्थात् वे सब त्रसकाय को छोड़ कर स्थावरकाय में उत्पन्न हो जाते हैं, तथैव कभी स्थावरकाय को छोड़ कर सबके सब त्रसकाय में भी उत्पन्न हो जाते हैं / अतः जब वे सब (स्थावरकाय को छोड़ कर एकमात्र) त्रसकाय में उत्पन्न होते है, तब वह स्थान (समस्त त्रसकायीय प्राणिवर्ग) श्रावकों के घात-योग्य नहीं होता। वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी कहलाते हैं। वे विशालकाय भी होते हैं और चिरकाल तक की स्थिति वाले भी। वे प्राणी बहुत हैं, जिनमें श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सफल सुप्रत्याख्यान होता है / तथा (आपके मन्तव्यानुसार उस समय) वे प्राणी (स्थावर) होते ही नहीं जिनके लिए श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान नहीं होता। इस प्रकार वह श्रावक महान् त्रसकाय के घात से उपशान्त, (स्व-प्रत्याख्यान में) उपस्थित तथा (स्थूलहिंसा से) प्रतिविरत होता है। ऐसी स्थिति में आप या दूसरे लोग, जो यह कहते हैं कि (जीवों का) एक भी पर्याय नहीं है, जिसको लेकर श्रमणोपासक का एक भी प्राणी के प्राणातिपात (दण्ड देने) से विरतिरूप प्रत्याख्यान यथार्थ एवं सफल (सविषय) हो सके / अतः आपका यह कथन न्यायसंगत नहीं है। विवेचन-उदक की प्राक्षेपात्मक शंका; गौतम का स्पष्ट समाधान–प्रस्तुत सूत्रद्वय में से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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