________________ गापा 432 से 434 353 432. जो व्यक्ति अबुद्ध (धर्म के वास्तविक तत्त्व से अनभिज्ञ) हैं, किन्तु जगत में महाभाग (महापूज्य या लोकविश्रुत) (माने जाते) हैं, एवं शत्रुसेना (या प्रतिवादी) को जीतने में वीर (वाग्वीर) हैं, तथा असम्यक्त्वदर्शी (मिथ्यादृष्टि) हैं, उन (सम्यक्तत्त्व परिज्ञानरहित) लोगों का तप, दान, अध्ययन, यमनियम आदि में किया गया पराक्रम (वीर्य) अशुद्ध है, उनका सबका सब पराक्रम कर्मबन्धरूप फलयुक्त होता है। 433. जो व्यक्ति पदार्थ के सच्चे स्वरूप के ज्ञाता (बुद्ध। हैं. महाभाग (महापूज्य) हैं, कर्मविदारण करने में सहिष्णु या ज्ञानादि गुणों से विराजित (वीर) हैं तथा सम्यक्त्वदर्शी (सम्यग्दृष्टि-परमार्थतत्त्वज्ञ) हैं उनका तप, अध्ययन, यम, नियम आदि में समस्त पराक्रम शुद्ध और सर्वथा कर्मबन्धरूप फल से रहित (निरनुबन्ध) (सिर्फ कर्मक्षय के लिए) होता है। 434. जो महाकुलोत्पन्न व्यक्ति प्रवजित होकर पूजा-सत्कार के लिये तप करते हैं, उनका तप (रूप पराक्रम) भी शुद्ध नहीं है। जिस तप को अन्य (दानादि में श्रद्धा रखने या श्राद्ध-श्रावक आदि) व्यक्ति न जाने, (इस प्रकार से गुप्त तप आत्मार्थो को करना चाहिए।) और न ही (अपने मुख से) अपनी प्रशंसा करनी चाहिए।१२।। विवेचन-अशुद्ध और शुद्ध पराक्रम हो बालवीर्य और पण्डितबीर्य-प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं में शास्त्रकार अशुद्ध और शुद्ध पराक्रम के आधार पर बालवीर्य और पण्डितवीर्य का अन्तर समझाते हैं। गाथाओं पर से भगवान महावीर की त्रिविध शूद्धि की स्पष्ट दृष्टि परिलक्षित होती है-(१) साधन भी शुद्ध हो, (2) साध्य भी शुद्ध हो, (3) साधक भी शुद्ध हो / साधक चाहे जितना प्रसिद्ध हो; लोक-पूजनीय हो, परन्तु यदि उसकी दृष्टि सम्यक् नहीं है, वह परमार्थ तत्त्व से अनभिज्ञ है तो वह अशुद्ध है। उसके द्वारा तप, दान, अध्ययन, यम, नियम आदि शुद्ध कहलाने वाले साधनों के लिये किया जाने वाला पराक्रम, भले ही वह मोक्ष रूप शुद्ध साध्य को लक्ष्य में रखकर किया गया हो, अशुद्ध ही है, वह कर्मबन्धन से मोक्ष दिलाने वाला न होकर कर्मबन्ध रूप (संसार, फल का दायक होगा। इसके विपरीत जो व्यक्ति परमार्थ तत्त्व का ज्ञाता (प्रबुद्ध) है, लोकप्रसिद्ध पूजनीय भी है, सम्यग्दष्टि है, वह शुद्ध है, उसके द्वारा मोक्षरूप शुद्ध साध्य को लक्ष्य में रखकर कर्मक्षयहेतु से तप, अध्ययन, यम नियमादि शुद्ध साधनों के विषय में किया जाने वाला पराक्रम शुद्ध है, वह कर्मबन्धरूप फल (ससार) का नाशक एवं मोक्षदायक होगा / अशुद्ध पराक्रम वालवीर्य का और शुद्ध पराक्रम पण्डितबीर्य का द्योतक है। तीसरी गाथा (सू० गा० 434) में भी अशुद्ध साध्य को लक्ष्य में रखकर महाकुलीन प्रवजित साधक द्वारा तपस्यारूप शुद्ध साधन के लिए किया जाने वाला पराक्रम अशुद्ध बताया गया है, क्योंकि जो तपस्या मोक्षरूप साध्य की उपेक्षा करके केवल इहलौकिक-पारलौकिक सुखाकांक्षा, स्वार्थसिद्धि, प्रशंसा, प्रसिद्धि या पूजा आदि को लक्ष्य में रखकर की जाति है, उस तपस्वी का वह पराक्रम अशुद्ध, कर्मबन्धकारक, संसार-फलदायक होता है, वह कर्मनिर्जरा (कर्मक्षय) रूप मोक्ष नहीं दिलाता / दशवैकालिक सूत्र में इहलौकिक-पार 12 चूणि में इसके आगे एक गाथा अधिक मिलती है "तेसि तु तवो सुद्धो निक्खंता जे महाकुला / अवमाणिते परेण तु ण सिलोगं वयंति ते.".-अर्थ स्पष्ट , 13 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 174 पर से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org