________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 17 से 18 क्षणिकवाद:दो रूपों में 17. पंच खंधे वयंतेगे बाला उ खणजोइणो। अन्नो अणन्नो णेवाऽऽहु हेउयं च अहेउयं / / 17 // 15. पुढबी आऊ तेऊ य तहा वाउ य एकओ। चत्तारि धाउणो रूवं एवमाहंसु जाणगा // 18 // 17. कई बाल (अज्ञानी) क्षणमात्र स्थिर रहने वाले पाँच स्कन्ध बताते हैं। वे (भूतों से) भिन्न तथा अभिन्न, कारण से उत्पन्न (सहेतुक) और बिना कारण उत्पन्न (अहेतुक) (आत्मा को) नहीं मानतेनहीं कहते। 18. दूसरे (बौद्धों) ने बताया कि पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चारों धातु के रूप हैं, ये (शरीर के रूप में) एकाकार हो जाते हैं, (तब इनकी जीव-संज्ञा होती है)। विवेचन-क्षणमंगी पंच स्कन्धवाद : स्वरूप और विश्लेषण-१७वीं गाथा में पंचस्कन्धवादी कतिपय बौद्धों की क्षणिकवाद की मान्यता का प्रतिपादन किया गया है। मूल पाठ एवं वृत्ति के अनुसार पंचस्कन्धवाद क्षणिकवादी कुछ बौद्धों का मत है। विसुद्धिमग्ग सुत्तपिटकगत अंगुत्तरनिकाय आदि बौद्धग्रन्थों के अनुसार पाँच स्कन्ध निम्न हैं 1. रूपस्कन्ध, 2. वेदनास्कन्ध, 3. संज्ञास्कन्ध, 4. संस्कारस्कन्ध और 5. विज्ञानस्कन्ध / इन्हीं पांचों को उपादानस्कन्ध भी कहा जाता है। शीत आदि विविध रूपों में विकार प्राप्त होने के स्वभाव वाला जो धर्म है वह सब एक होकर रूपस्कन्ध बन जाता है। भूत और उपादान के भेद से रूपस्कन्ध दो प्रकार का होता है। सुख-दुःख, असुख और अदुःख रूप वेदन (अनुभव) करने के स्वभाव वाले धर्म का एकत्रित होना वेदनास्कन्ध है। विभिन्न संज्ञाओं के कारण वस्तुविशेष को पहचानने के लक्षण वाला स्कन्ध संज्ञास्कन्ध है, पुण्य-पाप आदि धर्म-राशि के लक्षण वाला स्कन्ध संस्कारस्कन्ध कहलाता है। जो जानने के लक्षण वाला है, उस रूपविज्ञान, रसविज्ञान आदि विज्ञान समुदाय को विज्ञानस्कन्ध कहते हैं। 57 ___ इन पाँचों स्कन्धों से भिन्न या अभिन्न सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, ज्ञानादि का आधारभूत आत्मा नाम का कोई पदार्थ नहीं है। इन पंचस्कन्धों से भिन्न आत्मा का न तो प्रत्यक्ष अनुभव होता है, न ही 57 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 25 के आधार पर (ख) I पंच खन्धा-रूपक्खन्धो, वेदनाक्खंधो, साक्खंघो, संखारक्खंधो, विआगक्खंधो ति / तत्थ यं किचि सीतादि हि रूप्पनलक्खणं धम्मजातं, सव्वं तं एकतो करवा रूपक्खंधो ति वेदितव्वं / ' यं किंचि वेदयित लक्खणं "वेदनाक्खंधो वेदितव्वो। यं किंचि संजाननलक्खणं..."संमक्खंधो वेदितब्बो। -विसुद्धिमग खन्धानद्दे स प 306 II पश्चिमे, भिक्खवे, उपादानक्खंधा। कतमे पञ्च ? रूपुपादानक्खंधो, वेदनुपादानक्खंधो, स पादानरखंधो, संडखारूपाधानक्वंधो, विज्ञाणुपादानक्खंधो / इमे खो, भिक्खवे, पंचुपादानक्खंधा। -सुत्तपिटके अंगुत्तरनिकाय, पालि भा० 4 पृ० 162 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org