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________________ 372 सूत्रकृतांग-नवम अध्ययन-धर्म कुशीलों को संगति से सुखमोयेच्छारूप उपपई -कुशोल व्यक्ति अपनी संगति में आने वाले सुविहित साधक को बहकाते हैं- "अजो ! आप शरीर को साफ और सशक्त रखिये / शरीर सुदृढ़ होगा तभी आप धर्मपालन कर सकेंगे। शरीर साफ रखने से मन भी साफ रहेगा। शरीर को बलवान् बनाने हेतु आधाकर्मी, औद्देशिक पौष्टिक आहार मिलता हो तो लेने में क्या आपत्ति है ? पैरों की रक्षा के लिए जूते पहन लेने या वर्षा मर्मी से सुरक्षा के लिए छाता लगा लेने में कौन-सा पाप है ? शरीररक्षा करना तो पहला धर्म है / अतः निरर्थक कष्टों से बचाकर धर्माधाररूप शरीर को रक्षा करनी चाहिए।" कभी-कभी वे आकर्षक युक्तियों से सुसावक को प्रभावित कर देते हैं- "आजकल तो पंचम काल है, हीनसंहनन है, इतनी कठोर क्रिया करने और इतने कठोर परोपहों और उपसर्गों को सहने की शक्ति कहाँ है ? अतः समयानुसार अपनी आचारसंहिता बना लेनी चाहिए आदि आदि।" अल्प पराक्रमी साधक कुशीलों के आकर्षक वचनों से प्रभावित हो, धीरे-धीरे उनके समान ही सुकुमार सुखशील बन जाते हैं / इसीलिए इन उपसों को सुखरूप कहा है। ये उपसर्ग पहले तो बहुत सुखद, सुहावने और मोहक लगते हैं, परन्तु बाद में ये संयम की जड़ों को खोखली कर देते हैं। साधु को ये उपसर्ग पराश्रित, इन्द्रियविषयों का दास और असंयमनिष्ठ बना देते हैं। अकारण गृहस्थ के घर में बैठने से हानि--अकारण गृहस्थ के घर पर बैठने से किसी को साधु के चारित्र में शंका हो सकतो है. किसी अन्य सम्प्रदाय का साधुढे पो व्यक्ति साधु पर मिथ्या दोषारोपण भी कर सकता है। दशवकालिक सूत्र में तीन कारणों से गृहस्थ के घर पर बैठना कल्पनीय बताया है-(१) वृद्धावस्था के कारण अशक्त हो, (2) कोई रोग ग्रस्त हो या अचानक कोई चक्कर आदि रोग खड़ा हो जाए (3) या दीर्धतपस्वी हो।१४ मर्यादातिकान्त हास्य : कर्मबन्ध का कारण-कभी-कभी हंसी-मजाक या हंसना कलह का कारण बन जाता है। इसीलिए आगम में हास्य और कुतुहल को कमों के बन्ध का कारण बताया है। उत्तराध्ययन एवं भगवती सूत्र में भी हास्य और क्रीड़ा को साधु के लिए बजित तथा कर्म बन्धकारक बताया है।५ "लद्ध कामे ण पत्थेज्जा"-इस पंक्ति के दो अर्थ फलित होते हैं-(१) दीर्घकालीन साधना के फलस्वरूप उपलब्ध काम-भोगों-सुख-साधनों का प्रयोग या उपयोग करने की अभिलाषा न करे, (2) 13 सूत्रकृतांग शी० वृत्ति प० 183 14 (क) सूत्र कृतांग शो० वृत्ति पत्रांक 183 (ख) दशवकालिक उ०६ गा० 57 से 60 तक 15 (क) सूत्रकृतांग शी० वृत्ति पत्रांक 183 / (ख) हासं कोडं च वज्जए'-उत्तरा अ० 1 / गा०६ (ग) 'जीवेणं भंते ! हसमाणे वा उस्सूयमाण वा कइ कम्मपगडीयो बंध? गोयमा! मत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा" —'शगवती शतक 5 / सूत्र 71 ( / अंग सुत्ताणि) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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