________________ माया : 473 से 487 482. आयं न कुज्जा इह जीवितही, असज्जमाणो य परिव्वएज्जा। णिसम्मभासी य विणीय गिद्धि, हिंसपिगतं वा ण कह करेज्जा // 10 // 483. आहाकडं वा ण णिकामएज्जा, णिकामयंते य ण संथवेज्जा। धुणे उरालं अणुवेहमाणे, चेवाण सोयं अणपेक्खमाणे // 11 // 484. एगत्तमेव अभिपत्थएज्जा, एवं पमोक्खो ण मुसं ति पास / एसप्पमोक्खो अमुसे वरे वो अकोहणे सच्चरते तवस्सो // 12 // 485. इत्थीसु या आरत मेहुणा उ, परिग्गहं चेव अकुत्रमाणे / उच्चावएसु विसएस ताई, णिस्संसयं भिक्खू समाहिपत्ते // 13 // 486 अति रति च अभिभूय भिक्खू, तणाइफासं तह सोतफासं / उण्हं च दंसं च हियासएज्जा, सुभि च दुभि च तितिक्खएज्जा // 14 // 487. गुत्तो वईए य समाहिपत्ते, लेसं समाहट्ट परिव्वएज्जा। गिहं न छाए ण वि छावएज्जा, संमिस्सभावं पजहे पयाम् // 15 // 473. मतिमान् (केवलज्ञानो) भगवान महावीर ने (केवलज्ञान से) जानकर सरल समाधि (मोक्षदायक) धर्म कहा है. (हे शिष्यो !) उस धर्म को तुम मुझ से सुनो। जो भिक्षु अप्रतिज्ञ (तप को ऐहिकपारलौकिक फलाकांक्षा से रहित) है, अनिदान भूत (विषयसुख प्राप्तिरूप निदान अथवा कर्मबन्ध के आदिकारणों (आश्रवों) या दुःखकारणरूप हिंसादि निदान या संसार के कारणम्प निदान से रहित है, अथवा अनिदान संसारकारणाभावरूप सम्यग्ज्ञानादि युक्त है, वही समाधिप्राप्त है / ऐसा मुनि शुद्ध संयम में पराक्रम करे। 474. ऊँची-नीची और तिरछी दिशाओं में जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, अपने हाथों और पैरों को संयम में रखकर (अथवा उनके हाथ-पैरों को बांधकर) किसी भी प्रकार से पीड़ा नहीं देनी चाहिए, (या हिंसा नहीं करनी चाहिए), तथा दूसरों के द्वारा न दिये हुए पदार्थ को ग्रहण नहीं करना चाहिए। 475. श्रुत और चारित्र-धर्म का अच्छी तरह प्रतिपादन करने वाला तथा वीतरागप्ररूपित धर्म में विचिकित्सा-शंका से ऊपर उठा हआ-पारंगत, प्रासुक आहार-पानी तथा एषणीय अन्य उपकरणादि से अपना जीवन-यापन करने वाला, उत्तम तपस्वी एवं भिक्षाजीवी साधु पृथ्वीकाय आदि प्राणियों के प्रति आत्मतुल्य (होकर) विचरण (-विचार) करे, या व्यवहार करे / इस लोक में चिरकाल तक (संयमी जीवन) जीने की इच्छा से आय (धन की आमदनी-कमाई या आश्रवों को आय-वृद्धि) न करे, तथा भविष्य के लिए (धन-धान्य आदि का) संचय न करे / 476. मूनि स्त्रियों से सम्बन्धित पंचेन्द्रिय विषयों से अपनी समस्त इन्द्रियों को रोककर जितेन्द्रिय बने। तथा बाह्य और आभ्यन्तर सभी संगों (आमक्ति-बन्धनों) से विशेष रूप से मुक्त होकर साधु (संयम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org