________________ सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालिय विवेचन–सम्बोधि प्राप्ति का उपदेश–इस अवसर्पिणी काल के प्रथम चक्रवर्ती भरत ने जब अपने 18 लधु भ्राताओं को अधीनता स्वीकार करने का संदेश भेजा, तब वे मार्गदर्शन के लिए प्रथम तीर्थंकर पितामह भगवान ऋषभदेव की सेवा में पहुंचे और हम क्या करें ?' का समाधान पूछा / तब आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव अपने गृहस्थपक्षीय पुत्रों को लक्ष्य करके विभिन्न पहलुओं से त्याग, वैराग्य का बोध प्राप्त करने का उपदेश देते हैं, जो इस उद्देशक में संकलित है / प्रस्तुत चतुःसूत्री में वे चार तथ्यों का बोध देते हैं (1) यहीं और अभी जीते जी बोध प्राप्त कर लो, परभव में पुनः बोध-प्राप्ति सुलभ नहीं, (6) मृत्यु सभी प्राणियों की निश्चित है, (3) माता-पिता आदि का मोह सुगति से वंचित कर देगा, (4) मोहान्ध जीव अपने दुष्कृत कर्मों के फलस्वरूप स्वयं दुःखित एवं दुर्गतियों में पीड़ित होते हैं। सम्बोध क्या और वह दुर्लम क्यों--प्रथम गाथा (सूत्र 86) में यथाशीघ्र सम्बोध प्राप्त करने की प्रेरणा दी गयी है वह सम्बोध क्या है ? वृत्तिकार कहते हैं-सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र, इस रत्नत्रय रूप उत्तम धर्म का बोध ही सम्बोध है। पहले तो मनुष्य जन्म प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है। मनुष्य जन्म को प्राप्ति के साथ आर्य देश, कर्म भूमि, उत्तम कुल, कार्यक्षम पांचों इन्द्रियाँ, स्वस्थ शरीर, दीर्घायु, नीरोगता तथा उत्तम सद्धर्म की प्राप्ति आदि अनेक दुर्लभ घाटियाँ पार करने के बाद भी मनुष्य प्रमाद में पड़ जाये तो सद्धर्म श्रवण और उस पर श्रद्धा करना अत्यन्त कठिन है / जब तक व्यक्ति सद्धर्म का श्रवण और उस पर श्रद्धा न कर ले, तब तक सम्बोध प्राप्ति भी दूर है, ऐसा समझकर ही सम्बोध दुर्लभतम बताया है। सद्धर्म-श्रवण से पहले ही दुर्लभ वस्तुएं प्राप्त होने पर अधिकांश लोग सोचने लगते हैं कि परलोक में बोध प्राप्त कर लेंगे, अभी क्या जल्दी है ? उसका निराकरण करते हुए कहा गया है'नो सुलहं पुणरावि जीवियं' अर्थात् यह मनुष्य जीवन अथवा संयमी जीवन पुनः मिलना सुलभ नहीं है। दो कारण से मनुष्य वर्तमान में प्राप्त उत्तम अवसर को आगे पर टालता है-(१) देवलोक या पुनः मनुष्य लोक मिलने की आशा से, अथवा (2) इस जन्म में भी वृद्धावस्था आने पर या भोगों से तृप्त हो जाने पर, परन्तु शास्त्रकार स्पष्ट कह देते हैं कि यह निश्चित नहीं है कि तुम्हें मरने के बाद देवलोक मिलेगा ही ! तिर्यञ्चगति या नरकगति मिल गई तो वहाँ सम्बोध पाना प्रायः असम्भव-सा है / देवगति मिल गई तो भी वहाँ सम्यग्दर्शन बोध उसी को प्राप्त होता है, जो मनुष्य-जन्म में उत्तम धर्मकरणी करते हैं, और बड़ी कठिनता से अगर वहाँ सम्बोध मिल भी गया तो भी देवता धर्माचरण या संयमी जीवन स्वीकार नहीं कर सकते, उसे मनुष्य ही कर सकते हैं। मनुष्य जन्म भी तभी मिलता है, जबकि प्रकृति भद्रता, विनीतता, सहृदयता एवं दया भाव हो / मान लो, मनुष्य जन्म मिल भी गया तो भी पूर्वोक्त विकट घाटियाँ पार होनी अत्यन्त कठिन है, फिर यदि मनुष्य जन्म को भी विषय-भोगों में फंसकर खो दिया अथवा बुढ़ापा आदि आने पर धर्म-बोध पाने की आशा से कुछ किया नहीं, यों ही हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे--क्या पता है, बुढ़ापा आयेगा या नहीं ? मान लो, बुढ़ापा भी आ गया, तो भी उस समय मनोवृत्ति कैसी होगी? धर्म-श्रवण की जिज्ञासा होगी या नहीं? सद्धर्म पर श्रद्धा होगी या नहीं? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org