________________ बिइयं अज्झयणं 'वेयालियं' पढमो उद्देसओ वैतालीय : द्वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक भगवान् ऋषभदेव द्वारा अठानवें पुत्रों को सम्बोध - 86. संबुज्झह किं न बुज्सह, संबोही खलु पेच्च दुल्लहा। णो हूवणमंति रातिओ, णो सुलभं पुणरावि जीवियं // 1 // 60. डहरा वुड्ढा य पासहा, गब्भत्था वि चयंति माणवा / सेणे जह बट्टयं हरे, एवं आउखयम्मि तुट्टती // 2 // 61. माताहि पिताहि लुप्पति, जो सुलभा सुगई वि पेच्चओ। एयाइं भयाई पेहिया, आरंभा विरमेज्ज सुव्वते // 3 // 62. जमिणं जगती पुढो जगा, कम्मेहि लुप्पंति पाणिणो। सयमेव कडेहि गाहती, णो तस्सा मुच्चे अपुट्ठवं // 4 // 86. (हे भव्यो !) तुम बोध प्राप्त करो। बोध क्यों नहीं प्राप्त करते ? (मरने के पश्चात) परलोक में सम्बोधि प्राप्त करना अवश्य ही दुर्लभ है / बीती हुई रातें लौटकर नहीं आती, और संयमी जीवन फिर (पुनः पुनः) सुलभ नहीं है। 60. छोटे बच्चे, बूढ़े और गर्भस्थ शिशु भी अपने जीवन (प्राणों) को छोड़ देते हैं, मनुष्यों ! यह देखो ! जैसे बाज बटेर पक्षी को (झपट कर) मार डालता है। इसी तरह आयुष्य क्षय (नष्ट) होते ही (मृत्यु भी प्राणियों के प्राण हर लेती है, अथवा) जीवों का जीवन भी टूट (नष्ट हो) जाता है। 11. कोई व्यक्ति माता-पिता आदि (के मोह में पड़कर, उन्हीं) के द्वारा मार्ग भ्रष्ट कर दिया जाता है, या वे संसार-परिभ्रमण कराते हैं। उन्हें मरने पर (परलोक में) सुगति (मनुष्यगति या देवगति) सुलभ नहीं होती—आसानी से प्राप्त नहीं होती। इन भयस्थलों (खतरों) को देख जानकर व्यक्ति सुव्रती (व्रतधारी) बनकर आरम्भ (हिंसादि जनित भयंकर पापकर्म) से विरत-निवृत्त हो जाय। 2. क्योंकि (मोहान्ध होकर सावध कार्यों से अविरत) प्राणी इस संसार में अलग-अलग अपने-अपने (स्वयं) किये हुए कर्मों के कारण दुःख पाते हैं, तथा (स्वकृत कर्मों के ही फलस्वरूप) नरकादि यातना स्थानों में जाते हैं / अपने कर्मों का स्वयं फलस्पर्श किये (फल भोगे) बिना (उनसे) वे छट (मुक्त) नहीं (हो) सकते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org