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________________ सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय रक्खसा"चयंति दुविखया / आशय यह है-मनुष्य भ्रान्तिवश यह सोच लेता है कि मनुष्य मरकर पुनः मनुष्य ही बनता है, अत: मुझे फिर यही गति मिलेगी, अथवा मैं राजा, नगरसेठ या ब्राह्मण आदि पद पर वर्ण-जाति में सदैव स्थायी रहूँगा, या मेरी वर्तमान सुखी स्थिति, यह परिवार, धन, धाम आदि सदैव ऐसे ही बने रहेंगे, परन्तु मृत्यु आती है, या पापकर्म उदय में आते हैं, तब सारी आशाओं पर पानी फिर जाता है, सभी स्थान उलट-पलट जाते हैं। व्यक्ति अपने पूर्व स्थानों या स्थितियों के मोह में मूढ़ होकर उनसे चिपका रहता है, परन्तु जब उस स्थिति को छोड़ने का अवसर आता है, तो भारी मन से विलाप-पश्चात्ताप करता हुआ दुःखित होकर छोड़ता है, क्योंकि उसे उस समय बहुत बड़ा धक्का लगता है। देवता को अमर (न मरने वाला) बताया गया है; इस भ्रान्ति के निवारणाथ इस गाथा में देव, गन्धर्व, राक्षस एवं असुर आदि प्रायः सभी प्रकार के देवों की स्थिति भी अनित्य, विनाशी एवं परिवर्तनशील बताई है / गीता में भी देवों की स्थिति अनित्य बताई गई है। __ शास्त्रकार का यह आशय गभित है कि सुज्ञ मानव अपनी गति, जाति, शरीर, धन, धाम, परिवार, पद आदि समस्त स्थानों को अनित्य एवं त्याज्य समझ कर इनके प्रति मोह ममता स्वयं छोड़ दे, ताकि इन्हें छोड़ते समय दुःखी न होना पड़े। वास्तव में देवों को अमर कहने का आशय केवल यही है कि वे अकालमृत्यु से नहीं मरते। विषय-मोगों एवं परिचितों में आसक्त जीवों को क्शा भी वही-इस द्वितीय गाथा में भी उसी अस्थिरता की झांकी देकर मनुष्य की इस म्रान्ति को तोड़ने का प्रयास किया गया है कि वह यह न समझ ले कि पंचेन्द्रिय विषय-भोगों का अधिकाधिक सेवन करने से तृप्ति हो जाएगी और ये विषय-भोग मेरा साथ कभी नहीं छोड़ेंगे, तथा माता-पिता, स्त्री-पुत्र आदि सजीव तथा धन, धाम, भूमि आदि निर्जीव परिचित पदार्थ सदा ही मेरे साथ रहेंगे, ये मुझे मौत से या दुःख से बचा लेंगे। जब अशुभ कर्म उदय में आएँगे और आयुष्य क्षय हो जाएगा, तब न तो ये विषय-भोग साथ रहेंगे और न ही परिचित पदार्थ / इन सभी को छोड़कर जाना पडेगा, अथवा पापकर्मोदयवश भयंकर दःख के गले में गिरना। के गतं में गिरना पड़ेगा। फिर व्यर्थ ही काम-भोगों पर या परिचित पदार्थों पर आसक्ति करके क्यों पाप कर्म का बन्ध करते हो, जिससे फल भोगते समय दुःखित होना पड़े ? 'कामेहि संथवेहि "ट्टतो' गाथा का यही आशय है। कठिन शब्दों की व्याख्या-राया चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, सम्राट्, राणा, राव राजा, ठाकुर जागीरदार आदि सभी प्रकार के शासक / कामेहि इच्छाकाम (विषयेच्छा) और मदनकाम (कामभोग) 5 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 55 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या के आधार पर पृ० 263 6 (क) ....... स्वर्गलोका अमृतत्वं भजन्ते........।" -कठोपनिषद् अ० 1: वल्ली 3, लो०१२-१३ (ख) "ते तं भुक्त्या स्वर्गलोक विशालं, क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।"-भगवद्गीता अ०९/२१ (ग) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 263 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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