________________ 124] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के विषय में कहा है। जैसे कि-चर्मपक्षी, लोमपक्षी, समुद्गपक्षी तथा विततपक्षी आदि खेचर तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय होते हैं। उन प्राणियों की उत्पत्ति भी उत्पत्ति के योग्य बीज और अवकाश के अनुसार होती है और स्त्री-पुरुष (मादा और नर) के संयोग से इनकी उत्पत्ति होती है। शेष बातें उरःपरिसर्प जाति के पाठ के अनुसार जान लेनी चाहिए / वे प्राणी गर्भ से निकल कर बाल्यावस्था प्राप्त होने पर माता के शरीर के स्नेह का आहार करते हैं। फिर क्रमश: बड़े होकर वनस्पतिकाय तथा त्रस-स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं / इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं और उन्हें पचाकर अपने शरीर रूप में परिणत कर लेते हैं। इन अनेक प्रकार की जाति वाले चर्मपक्षी आदि आकाशचारी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों के और भी अनेक प्रकार के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आकार एवं अवयवरचना वाले शरीर होते हैं, यह श्रीतीर्थंकर देव ने कहा है। विवेचन-पंचेन्द्रियतियंचों की उत्पत्ति, स्थिति, संवद्धि एवं प्राहार की प्रक्रिया-प्रस्तुत पांच सूत्रों में पांच प्रकार के तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति, स्थिति, संवृद्धि एवं आहारादि की प्रक्रिया का निरूपण किया गया है / पंचेन्द्रियतिर्यञ्च के 5 प्रकार ये हैं-जलचर, स्थलचर, उरःपरिसर्प, भुजपरिसर्प और खेचर / इन पांचों के प्रत्येक के कतिपय नाम भी शास्त्रकार ने बताए हैं / शेष सारी प्रक्रिया प्रायः मनुष्यों की उत्पत्ति अादि की प्रक्रिया के समान है। अन्तर इतना ही है कि प्रत्येक की उत्पत्ति अपने-अपने बीज और अवकाश के अनुसार होती है, तथा प्रथम आहार-ग्रहण में अन्तर है (1) जलचर जीव सर्वप्रथम जन्म लेते ही अप्काय का स्नेह का आहार करते हैं / (2) स्थलचर जीव सर्वप्रथम माता-पिता के स्नेह का (प्रोज) आहार करते हैं। (3) उर:परिसर्प जीव सर्वप्रथम वायुकाय का आहार करते हैं। (4) भुजपरिसर्प जीव उर:परिसर्प के समान वायुकाय का आहार करते हैं। (5) खेचर जीव माता के शरीर की गर्मी (स्निधता) का आहार करते हैं / शेष सब प्रक्रिया प्रायः मनुष्यों के समान है'। स्थलचर-एक खुरवाले घोड़े गधे आदि, दो खुर वाले -- गाय भैस आदि, गंडीपद (फलकवत् पैर वाले) हाथी गैंडा आदि, नखयुक्त पंजे वाले-सिंह बाघ आदि होते हैं / खेचर-चर्मपक्षी-चमचेड़, वल्गूली आदि, रोमपक्षी-हंस, सारस, बगुला आदि, विततपक्षी . और समुद्र पक्षी-ढाई द्वीप से बाहर पाये जाते हैं / विकलेन्द्रिय सप्राणियों को उत्पत्ति, स्थिति, संवृद्धि और आहार को प्रक्रिया ७३८--प्रहावरं पुरक्खातं—इहेगतिया सत्ता नाणाविहजोणिया नाणाविहसंभवा नाणाविह. वक्कमा तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा कम्मोवगा कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा नाणाविहाण तस थावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा अणुसूयत्ताए विउ ति, ते जीवा तेसि नाणाविहाणं 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 355-356 का सारांश 2. सूत्रकृ. शी. वृत्ति पत्रांक 355 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org