________________ 382 सूत्रकृतांग---दशम अध्ययन --- समाधि पदार्थों एवं विषयभोगों आदि की उपभोग क्रिया को समाधि (सुख) कारक मानते हैं, उक्त पदार्थों के ज्ञान को नहीं / एकान्त अक्रियावादी आत्मा को अकर्ता मानकर तत्काल जन्मे हुए बालक के शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके उसमें आनन्द (समाधि' मानते हैं। किन्तु वस्तुतः दूसरों को पीड़ा देने वाली पापक्रिया आत्मा को अक्रिय मानने-कह। मात्र से टल नहीं जाती, प्राणियों के साथ वैरवर्द्धक उस पाप का फल भोगना ही पड़ता है। (4) चारित्र-समाधि से दूर-अपने आपको आयुष्य क्षय रहित अमर मानकर रात-दिन धन, सांसारिक पदार्थ, स्त्री-पुत्र आदि पर ममत्व करके उन्हीं की प्राप्ति, रक्षा, वृद्धि आदि की चिन्ता में मग्न रहते है, ऐसे लोग समाधि (सुख-शान्ति के मूलभूत कारण ( वैराग्य, संयम, तप, नियम आदि रूप चारित्र) से दूर रहते हैं। मरने पर उनके द्वारा पाप से उपाजित धनादि पदार्थों को दूसरे ही लोग हड़प जाते हैं, न तो इहलोक में उन्हें समाधि प्राप्त होतो है, न ही परलोक में वे समाधि पाते हैं / पानान्तर और व्याख्या-धुतमादिसति' के बदले चूर्णिसम्मत पाठान्तर है-'धुतमादियंति' -- व्याख्या है-'धुत' अर्थात् वैराग्य की प्रशंसा करते हैं / 'जायस्स बालस्स पकुव्व देह' के बदले यहाँ युक्ति एवं प्रसंग से संगत पाठान्तर है-'जायाए बालस्स पगभणाए' व्याख्या की गई है-हिंसादि पापकर्मों में प्रवृत्त अनुकम्पा रहित अज्ञ (बाल) व्यक्ति की जो (हिंसावाद में) प्रगल्भता-धृष्टता उत्पन्न हुई, उससे उसका प्राणियों के साथ बैर ही बढ़ता है। साहसकारी' के बदले चूणिसम्मत पाठान्तर है-~~-'सहस्सकारो', व्याख्या दो प्रकार से की गई है-(१) स-हर्ष हिंसादि पाप करता है, (2) सहस्रों (हजारों) पापों को करता है। 'जहाहि वित्त" के बदले पाठान्तर है-'जया हि (य)', व्याख्या दो प्रकार से है-(१) 'वित्तं' आदि पदार्थों का त्याग करके, (2) जैसे कि धन आदि पदार्थ / समाधि प्राप्ति के लिए प्रेरणासूत्र 462. सोहं जहा खुद्दमिगा चरंता, दूरे चरंती परिसंकमाणा। एवं तु मेधावि समिक्ख धम्म, दूरेण पावं परिवज्जएज्जा // 20 // 463. संबुज्झमाणे तु णरे मतीमं, पावातो अप्पाण निवट्टएज्जा। हिंसप्पसूताई दुहाई मंता, वेराणुबंधोणि महन्भयाणि // 21 // 464. मुसं न बूया मुणि अत्तगामी, णिव्वाणमेयं कसिणं समाहि / सयं न कुज्जा न वि कारवेज्जा, करैतमन्नपि य नाणजाणे // 22 // 3 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्र 163 का सार 4 (क) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 87-88 (ख) सूत्रकृतांग शी० वृत्ति पत्रांक 163 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org