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________________ गाथा 488 से 461 381 भावसमाधि से दूर लोगों के विविध त्रिल-- 488. जे केइ लोगंसि उ अकिरियाया, अण्णेण पुट्ठा धुतमादिसति / आरंभसत्ता गढिता य लोए, धम्म न याणं ति विमोक्खहेउं // 16 // 486. पुढो य छंदा इह माणवा उ, किरियाकिरीणं च पुढो य वायं / जायस्स बालस्स पकुव्व देह' पवड्ढती वेरमसंजतस्स / / 17 / / 460. आउक्खयं चेव अबुझमाणे. ममाति से साहसकारि मदे / ____ अहो य रातो परितप्पमाणे, अट्ट सुमूढे अजरामर व // 18 / / 461. जहाहि वित्तं पसवो य सम्वे, जे बांधवा जे य पिता य मित्ता। लालप्पती सो वि य एइ मोहं, अन्न जणा तं सि हरंति वित्तं // 16 / / 488. इस लोक में जो (सांख्य) लाग आन्ना को अक्रिय (अकर्ता, कूटस्थनित्य) मानते हैं, और दूसरे के द्वारा पूछे जाने पर मोक्ष (धूत = आत्मा के मोक्ष में अस्तित्व) का प्रतिपादन करते हैं, वे सावध आरम्भ में आसक्त और विषय-भोगों में गृद्ध लोग मोक्ष के कारणभूत धर्म को नहीं जानते। 486. इस लोक में मनुष्यों की रुचि भिन्न-भिन्न होती है, इसलिए कोई क्रियावाद को मानते हैं वाद को। कोई जन्मे हुए बालक के शरीर को खण्डशः काटकर अपना सूख मानते हैं। वस्तुतः असंयमी व्यक्ति का प्राणियों के साथ वैर बढ़ता है / 460. आरम्भ में आसक्त पुरुष आयुष्य-क्षय को नहीं समझता, किन्तु वह मूढ़ (मन्द) सोसारिक पदार्थों पर ममत्व रखता हुआ पापकर्म करने का साहस करता है / वह दिन-रात चिन्ता से संतप्त रहता है। वह मूढ़ स्वयं को अजर-अमर के समान मानता हुआ अर्थों (धन आदि पदार्थों) में मोहितआसक्त रहता है। 461. समाधिकामी व्यक्ति धन और पशु आदि सव पदार्थों का (ममत्व) त्याग करे / जो बान्धव और प्रिय मित्र हैं, वे वस्तुतः कुछ भी उपकार नहीं करते, तथापि मनुष्य इनके लिए शोकाकुल होकर विलाप करता है और मोह को प्राप्त होता है। (उसके मर जाने पर) उनके (द्वारा अत्यन्त क्लेश से उपाजित) धन का दूसरे लोग ही हरण कर लेते हैं। विवेचन-मायसमाधि से दूर लोगों के विविध चित्र-प्रस्तुत चार सूत्र गाथाओं में उन लोगों का चित्र शास्त्रकार ने प्रस्तुत किया है, जो वस्तुतः भाव समाधि से दूर हैं, किन्तु भ्रमवश स्वयं को समाधि प्राप्त (सुखमग्न) मानते हैं। वे क्रमशः चार प्रकार के हैं -(1) दर्शन समाधि से दूर-आत्मा को निष्क्रिय (अकर्ता) मानकर भी उसके द्वारा घटित न हो सकने वाले शाश्वत समाधि रूप मोक्ष का कथन करते हैं, (2) जाम-समाधि से दूर-मोक्ष के कारणभूत सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र रूप धर्म को नहीं जानते, अपितु आरम्भासक्ति एवं विषयभोग गृद्धि रूप अधर्म को ही मोक्ष का कारणभूत धर्म जान कर उसी में रचे-पचे रहते हैं, (3) दर्शन-समाधि से दूर-क्रियावादी और अक्रियावादी / एकान्त क्रियावादी स्त्री, भोगोपभोग्य 1 पाठान्तरजायाए बालस्स पगाभणाए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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