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________________ गाथा 462 से 466 465. सुद्ध सिया जाए न दूसएज्जा, अमुच्छिते ण य अज्झोववण्णे / धितिमं विमुक्के ण य पूयणट्ठी, न सिलोयकामी य परिश्वएज्जा // 23 // 496. निक्खम्म गेहाउ निरावकंखी, कायं विओसज्ज नियाणछिण्णे। नो जीवितं नो मरणाभिकंखी, चरेज्ज भिक्खू वलया विमुक्के / / 24 / / त्ति बेमि। // समाही : दसम अज्झयणं सम्मत्तं // 462. जैसे वन में विचरण करते हुए मृग आदि छोटे-छोटे जंगली पशु सिंह (के द्वारा मारे जाने) की शंका करते हुए दूर से ही (बचकर) चलते हैं, इसीप्रकार मेधावी साधक (समाधि रूप) धर्म का विचार करके (असमाधि प्राप्त होने की शंका से) पाप को दूर से ही छोड़कर विचरण करे। 463. भाव-समाधि से या सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप धर्म को समझने वाला (विहितानुष्ठान में प्रवृत्ति करता हुआ) सुमतिमान् पुरुष (हिंसा-असत्यादि रूप) पापकर्म से स्वयं को निवृत्त करे। हिंसा से उत्पत्र अशुभ कर्म नरकादि यातना स्थानों में अत्यन्त दुःखोत्पादक हैं, लाखों जन्मों तक प्राणियों के साथ वैर परम्परा बाँधने वाले हैं, इसीलिए ये महान् भयजनक है। 464. आप्तगामी (आप्त-सर्वज्ञों के द्वारा प्ररूपित मोक्ष मार्ग पर चलने वाला), अथवा आत्महित गामी (आत्म-निःश्रेयसकामी) मुनि असत्य न बोले। इसी तरह वह मृषावाद-विरमण तथा दुसरे महाव्रतों के स्वयं अतिचार (दोष) न करे (लगाए), दूसरे के द्वारा अतिचार-सेवन न कराए तथा अतिचारसेवी का (मन, वचन, काया और कर्म से) अनुमोदन न करे (उसे अच्छा न जाने)। यही निर्वाण (परम शान्ति रूप मोक्ष) तथा सम्पूर्ण भाव-समाधि (कहा गया) है। 465. उद्गम, उत्पाद और एषणादि दोषों से रहित शुद्ध आहार प्राप्त होने पर साधु उस पर राग-द्वेष करके चारित्र को दूषित न करे। मनोज्ञ सरस आहार में भी मूच्छित न हो, न ही बार-बर उस आहार को पाने की लालसा करे : भाव-समाधिकामी साधु तिमान् एवं बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से विमुक्त बने / वह अपनी पूजा-प्रतिष्ठा एवं कीर्ति का अभिलाषी न होकर शुद्ध संयम में पराक्रम करे। 466. समाधिकामी साधु अपने घर से निकल कर (दीक्षा लेकर) अपने जीवन के प्रति निरपेक्ष (निराकांक्षी) हो जाए, तथा शरीर-संस्कार-चिकित्सा आदि न करता हुआ शरीर का व्युत्सर्ग करे एवं अपने तप के फल की कामना रूप निदान का मूलोच्छेद कर दे / साधु न तो जीवन की आकांक्षा करे और न ही मरण की। वह संसार-वलय (जन्म-मरण के चक्र अथवा कर्मबन्धन या सांसारिक झंझटों के चक्कर) से विमुक्त होकर संयम या मोक्ष रूप समाधि पथ पर विचरण करे। --ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-विविध समाधि प्राप्ति के लिए प्रेरणा सूत्र-प्रस्तुत पांच सूत्र गाथाओं द्वारा शास्त्रकार ने इस अध्ययन का उपसंहार करते हुए विविध समाधियों की प्राप्ति के लिए कुछ प्रेरणा सूत्र प्रस्तुत किये हैं, जिनके अनुसार चलना भाव समाधिकामियों के लिए अनिवार्य है / इस पंचसूत्री में मुख्यतया आचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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