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________________ प्रथम उद्देशक :गाया 305 से 324 265 पाप को नहीं जानता हुआ संज्ञाहीन होकर जलता रहता है। (वह नरक) सदैव करुणाप्राय है, सम्पूर्ण ताप का स्थान है, जो पापी जीवों को बलात् (अनिवार्य रूप से विवशता से) मिलता है, उसका स्वभाव ही अत्यन्त दुःख देना है। 312. जिस नरकभूमि में न रकर्म करने वाले (परमाधार्मिक असुर) (चारों दिशाओं में) चार अग्नियाँ जलाकर अज्ञानी नारक को तपाते हैं। वे नारकी जीव जीते-जी आग में डाली हुई मछलियों की तरह ताप पाते-तड़फड़ाते हुए उसी जगह पड़े रहते हैं। 313. (वहाँ) संतक्षण नामक एक महान् ताप देने वाला नरक है, जहाँ बुरे कर्म करने वाले वे (नारक) नरकपाल हाथों में कुल्हाडी लिये हुए उनके (नारकों के) हाथों और पैरों को बांधकर लकड़ी के तख्ते की तरह छीलते हैं। 314. फिर रक्त से लिप्त जिनके शरीर के अंग मल से सूज (फल) गये हैं, तथा जिनका सिर चूर-चूर कर दिया गया है, और जो (पीड़ा के मारे) छटपटा रहे हैं, ऐसे नारकी जीवों को परमाधार्मिक असुर (ऊपर-नीचे) उलट-पलट करते हुए जीवित मछली की तरह लोहे की कडाही में (डालकर) पकाते हैं। 315. वे नारकी जीव उस नरक (की आग) में (जलकर) भस्म नहीं हो जाते और न वहाँ की तीव्र वेदना (पीड़ा) से मरते हैं, किन्तु नरक की उस वेदना को भोगते हुए वे वहीं रहते हैं और इस लोक में किये हुए दुष्कृत-पाप के कारण वे दुःखी होकर वहाँ दुःख पाते रहते हैं / 316. नारकी जीवों के संचार से अत्यन्त व्याप्त (भरे हुए) उस नरक में तीव्ररूप से अच्छी तरह तपी हुई अग्नि के पास जब वे नारक जाते हैं, तब उस अतिदुर्गम अग्नि में वे सुख नहीं पाते / (यद्यपि वे नारक) तीव्र ताप से रहित नहीं होते, तथापि नरकपाल उन्हें और अधिक तपाते हैं / 317. इसके पश्चात् उस नरक में नगरवध (शहर में कत्लेआम) से समय होने वाले कोलाहल के से शब्द तथा दुःख से भरे (करुणाजनक) शब्द भी (सुनाई पड़ते हैं। जिनके मिथ्यात्वादि-जनित कर्म उदय में आए हैं, वे (परमाधार्मिक नरकपाल) जिनके पापकर्म उदय (फल देने की) दशा में आये हुए हैं, उन नारकी जीवों को बड़े उत्साह के साथ बार-बार दुःख देते हैं। 318. पापी नरकपाल नारकी जीवों के प्राणों का पांच इन्द्रियों, मन-वचन-कायाबल आदि प्राणोंअवयवों को काट कर अलग-अलग कर देते हैं, इसका कारण मैं तुम्हें यथातथ्य (यथार्थ) रूप से बताता अज्ञानी नरकपाल नारको जीवों को दण्ड देकर उन्हें उनके पूर्वकृत सभी पापों का स्मरण कराते हैं। 316. परमाधामिकों द्वारा मारे जाते हुए वे नारकी जीव महासन्ताप देने वाले विष्ठा और मूत्र आदि बीभत्सरूपों से पूर्ण दूसरे नरक में गिरते हैं। वे वहाँ विष्ठा, मूत्र आदि का भक्षण करते हुए चिरकाल (बहुत लम्बे आयुष्यकाल) तक कर्मों के वश होकर रहते हैं और कृमियों (कीड़ों) के द्वारा काटे जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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